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८६४ व्याख्यानसार-प्रशंसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह - ३३वाँ वर्ष
( १ ) तीर्थ, ( २ ) अतीर्थ, ( ३ ) तीर्थंकर, (४) अतीर्थंकर. ( ५ ) स्त्रयंबुद्ध, (६) प्रत्येकबुद्ध, (७) बुद्धबोधित, (८) स्त्रीलिंग, (९) पुरुषलिंग, (१०) नपुंसकलिंग, ( ११ ) अन्यलिंग, ( १२ ) जैनलिंग, (१३) गृहस्थलिंग, (१४) एक, और ( १५ ) अनेक ।
संसारी: - संसारी जीव एक प्रकार, दो प्रकार इत्यादि अनेक प्रकारसे कहे हैं । सामान्यरूप से उपयोग लक्षणसे सर्व संसारी जीव एक प्रकारके हैं। त्रस स्थावर, अथवा व्यवहारराशि अव्यवहारराशि के भेदसे जीव दो प्रकारके हैं। सूक्ष्म निगोदमेंसे निकलकर जिसने कभी सपर्याय प्राप्त की है वह व्यवहारराशि है । तथा अनादिकालसे सूक्ष्म निगोदमेंसे निकलकर, जिसने कभी भी सपर्याय प्राप्त नहीं की, वह अव्यवहारराशि है । संयत असंयत और संयतासंयत, अथवा स्त्री पुरुष और नपुंसक इस तरह जीवके तीन प्रकार हैं । चार गतियोंकी अपेक्षा चार भेद हैं । पाँच इन्द्रियोंकी अपेक्षा पाँच भेद हैं । पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस इस तरह छह भेद हैं । कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल और अलेशी ( यहाँ चौदहवें गुणस्थानवाले जीव लेने चाहिये, सिद्ध न लेने चाहिये, क्योंकि यह संसारी जीवकी व्याख्या है ), इस तरह जीवके सात भेद हैं। अंडज, पोतज, जरायुज, स्वेदज, रसज, सन्मूर्च्छन, उद्भिज और उपपादके भेदसे जीवके आठ भेद समझने चाहिये । पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इस तरह जीवके नौ प्रकार समझने चाहिये । पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और संज्ञी तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय इस तरह जीवके दस भेद समझने चाहिये । सूक्ष्म, बादर, तीन विकलेन्द्रिय, और पंचेन्द्रियोंमें जलचर, थलचर, नभचर, तथा मनुष्य, देव और नारकी इस तरह जीवके ग्यारह भेद समझने चाहिये । छहकायके पर्याप्त और अपर्याप्त इस तरह जीवके बारह भेद समझने चाहिये । उक्त संव्यवहारिकके बारह भेद, तथा एक असंव्यवहारिक ( सूक्ष्म निगोदका ) मिलाकर तेरह भेद होते हैं । चौदह गुणस्थानोंके भेदसे; अथवा सूक्ष्म बादर, तीन विकलेन्द्रिय तथा संज्ञी असंज्ञी इन सातोंके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे जीवके चौदह भेद होते हैं। इस तरह बुद्धिमान पुरुषोंने सिद्धांतका अनुसरण कर जीवके अनेक भेद ( विद्यमान भावोंके भेद ) कहे हैं ।
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आषाढ़ सुदी ९ शुक्र. १९५६
१. जातिस्मरण ज्ञानके विषयमें जो शंका रहती है, उसका समाधान निम्न प्रकारसे होगा:जैसे बाल्यावस्थामें जो कुछ देखा हो अथवा अनुभव किया हो, उसका बहुतसोंको वृद्धावस्थामें स्मरण होता है और बहुतसोंको नहीं होता; उसी तरह बहुतसोंको पूर्वभवका भान रहता है और बहुतों को नहीं रहता। उसके न रहनेका कारण यह है कि पूर्वदेहको छोड़ते हुए जीव बाह्य पदार्थोंमें संलग्न हो कर मरण करता है, और नई देह पाकर वह उसीमें आसक्त रहता है । इससे उल्टी रीति से चलनेवालेको ( जिसने अवकाश रक्खा हो उसे ) पूर्वभव अनुभवमें आता है ।
२. जातिस्मरण ज्ञान मतिज्ञानका भेद है । पूर्वपर्यायको छोड़ते हुए वेदनाके कारण, नई देह धारण करते हुए गर्भावासके कारण, बालावस्थामें मूढताके कारण, और वर्त्तमान देहमें लीनता के कारण, पूर्वपर्यायकी स्मृति करनेका अवकाश ही नहीं मिलता । तथापि जिस तरह गर्भावास और बाल्यावस्था स्मृतिमें नहीं रहते, इस कारण वे होते ही नहीं, यह नहीं कहा जा सकता; उसी तरह उपर्युक्त कारणोंको
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