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श्रीमद् राजचन्द्र [८६४ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान १. योगदृष्टिमें छहों भावोंका ( औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक और सान्निपातिक ) समावेश होता है । ये छह भाव जीवके स्वतत्त्वभूत हैं।
५. जबतक यथार्थ ज्ञान न हो तबतक मौन रहना ही ठीक है। नहीं तो अनाचार दोष लगता है । इस विषयमें उत्तराध्ययनसूत्रमें अनाचारनामक अधिकार है।
६. ज्ञानीके सिद्धांतमें फेर नहीं हो सकता ।
७. सूत्र आत्माका स्वधर्म प्राप्त करनेके लिये बनाये गये हैं; परन्तु उनका रहस्य यथार्थ समझमें नहीं आता; इससे फेर मालूम होता है ।
८. दिगम्बरमतके तीव्र वचनोंके कारण कुछ रहस्य समझमें आ सकता है । श्वेताम्बरमतकी शिथिलताके कारण रस ठंडा होता गया।
९. 'शाल्मलि वृक्ष ' यह शब्द नरकमें असाता बताने के लिये प्रयुक्त होता है । वह वृक्ष खदिरके वृक्षसे मिलता जुलता होता है । भावसे संसारी-आत्मा उस वृक्षरूप है। आत्मा परमार्थसे ( अध्यवसाय छोड़कर ) नंदनवनके समान है।
१०. जिनमुद्रा दो प्रकारकी है:-कायोत्सर्ग और पद्मासन । प्रमाद दूर करनेके लिये दूसरे अनेक आसन किये गये हैं, किन्तु मुख्यतः ये दो ही आसन हैं। ११. प्रशमरसनिममं दृष्टियुग्मं प्रसनं, वदनकमलमंकः कामिनीसंगशून्यः ।
करयुगमपि यत्ते शास्त्रसंबंधवंध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥ १२. चैतन्य लक्ष करनेवालेकी बलिहारी है। १३. तीर्थ-पार होनेका मार्ग ।
१४. अरहनाथ प्रभुकी स्तुति महात्मा आनंदघनजीने की है। श्रीआनंदघनजीका दूसरा नाम लाभानंद था । वे तपगच्छमें हुए हैं।
१५. वर्तमानमें लोगोंको ज्ञान तथा शांतिके साथ संबंध नहीं रहा। मताचार्यने मार डाला है। १६. xआशय आनंदघनतणो, अति गंभीर उदार ।
बालक बांह पसारि जिम, कहे उदधिविस्तार ॥ १७. ईश्वरत्व तीन प्रकारसे जाना जाता है:-(१) जड़ जड़रूपसे रहता है; (२) चैतन्य-संसारी जीव-विभावरूपसे रहते हैं; (३) सिद्ध शुद्ध चैतन्यभावसे रहते हैं।
(१०) आषाढ़ सुदी १३ भौम. १९५६ १ भगवतीआराधना जैसी पुस्तकें मध्यमउत्कृष्ट-भावके महात्माओंके तथा मुनिराजोंके योग्य हैं। ऐसे ग्रन्थोंको उससे कम पदवी ( योग्यता ) वाले साधु श्रावकको देनेसे कृतघ्नता होती है । उन्हें उससे उल्टा नुकसान ही होता है । सच्चे मुमुक्षुओंको ही यह लाभकारी है।
२. मोक्षमार्ग अगम्य तथा सरल है ।
अगम्यः-मात्र विभावदशाके कारण मतभेद पड़ जानेसे किसी भी जगह मोक्षमार्ग ऐसा नहीं रहा जो समझमें आ सके; और इस कारण वर्तमानमें वह अगम्य है। मनुष्यके मर जानेके पश्चात्
x आनंदघनका आशय अति गंभीर और उदार है, फिर भी जिस तरह बालक बाँह फैलाकर समुद्रका विस्तार कहता है, उसी तरह यह विस्तार कहा है।