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८६४ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह - ३३वाँ वर्ष
(इ) सोपक्रम - शिथिल --- जिसे एकदम भोग लिया जाय । (ई) निरुपक्रम = निकाचित । देव, नरक, युगल, तरेसठ शलाकापुरुष और चरम - शरीरीको होता है ।
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( उ ) प्रदेशोदय = प्रदेशको मुखके पास ले जाकर वेदन करना, वह प्रदेशोदय है । प्रदेशोदयसे ज्ञानी कर्मका क्षय अंतमुहूर्त में कर देते हैं ।
(ऊ) अनपवर्त्तन और अनुदीरणा – इन दोनोंका अर्थ मिलता हुआ है । तथापि दोनोंमें अंतर यह है कि उदीरणामें आत्माकी शक्ति है, और अनपवर्तनमें कर्मकी शक्ति है । (ए) आयु घटती है, अर्थात् थोड़े कालमें भोग ली जाती है। १५. असाताके उदयमें ज्ञानकी कसौटी होती है । १६. परिणामकी धारा थरमामीटर के समान है ।
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आषाढ़ सुदी १० शनि १९५५ १. (१) असमंजसता - अनिर्मल भाव (अस्पष्टता). (२) विषम = जैसे तैसे. (३) आर्य = उत्तम । आर्य शब्द श्रीजिनेश्वरके, मुमुक्षुके, तथा आर्यदेशके रहनेवालोंके लिये प्रयुक्त होता है । (४) निक्षेप = प्रकार, भेद, विभाग |
२. भयत्राण = भयसे पार करनेवाला; शरण देनेवाला ।
३. हेमचन्द्राचार्य धंधुकाके मोद वैश्य थे । उन महात्माने कुमारपाल राजासे अपने कुटुम्बके लिये एक क्षेत्रतक भी न माँगा था । तथा स्वयं भी राज- अन्नका एक प्रासतक भी न लिया था— यह बात श्रीकुमारपालने उन महात्माके अग्निदाहके समय कही थी। उनके गुरु देवचन्द्रसूरि थे ।
(८)
आषाढ़ सुदी ११ रवि. १९५६
१. सरस्वती = जिनवाणीकी धारा.
२. ( १ ) बाँधनेवाला, (२) बाँधनेके हेतु, (३) बंधन और ( ४ ) बंधन के फलसे समस्त संसारका प्रपंच रहता है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रने कहा है ।
३. बनारसीदास श्री आगराके दशाश्रीमाली वैश्य थे ।
( ९ )
आषाद सुदी १२ सोम. १९५६ १. श्रीयशोविजयजीने योगदृष्टि प्रन्थ में - छडी 'कान्तादृष्टि' में बताया है कि वीतरागस्वरूपके बिना कहीं भी स्थिरता नहीं हो सकती; वीतरागसुखके सिवाय दूसरा सब सुख निःसत्व लगता हैआडम्बररूप लगता है । पाँचवीं 'स्थिरादृष्टि' में बताया है कि वीतरागसुख प्रियकर लगता है। आठवीं 'परादृष्टि' में बताया है कि परमावगादसम्यक्त्व होता है; वहाँ केवलज्ञान होता है ।
२. पातंजलयोगके कर्त्ताको सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ था, परन्तु हरिभद्रसूरिने उन्हें मार्गानुसारी माना है ।
३. हरिभद्रसूरिने उन दृष्टियोंका अध्यात्मरूपसे संस्कृतमें वर्णन किया है; और उसके ऊपरसे यशोविजयजी महाराजने उन्हें ढालरूपसे गुजरातीमें लिखा है ।