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८६४ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह - ३३वाँ वर्ष
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९. जैसे परमाणुकी शक्ति पर्याय प्राप्त करनेसे बढ़ती जाती है, उसी तरह चैतन्यद्रव्यकी शक्ति विशुद्धता प्राप्त करनेसे बढ़ती जाती है। काँच, चश्मा, दुरबीन आदि पहिले (परमाणु) के अनुसार हैं; और अवधि, मनः पर्यव, केवलज्ञान, लब्धि, ऋद्धि वगैरह दूसरे ( चैतन्यद्रव्य ) के अनुसार हैं । ( ३ ) आषाढ़ सुदी ६ भौम. १९५६ १. क्षयोपशमसम्यक्त्वको वेदकसम्यक्त्व भी कहा जाता है । परन्तु क्षयोपशममेंसे क्षायिक होनेकी संधि के समयका जो सम्यक्त्व है, वही वास्तविक रीतिसे वेदकसम्यक्त्व है ।
२. पाँच स्थावर एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म दोनों हैं । वनस्पतिके सिवाय बाकीके चारमें असंख्यात सूक्ष्म कहे जाते हैं । निगोद सूक्ष्म अनंत हैं; और वनस्पतिके भी सूक्ष्म अनंत हैं; वहाँ निगोद में सूक्ष्म वनस्पति घटती है ।
३. श्रीतीर्थकर ग्यारहवें गुणस्थानका स्पर्श नहीं करते, इसी तरह वे पहिले, दूसरे तथा तीसरेका भी स्पर्श नहीं करते ।
४. वर्धमान, हीयमान और स्थित ऐसी जो तीन परिणामोंकी धारा है, उसमें हीयमान परिणामकी सम्यक्त्वसंबंधी ( दर्शनसंबंधी ) धारा श्रीतीर्थंकरदेवको नहीं होती; और चारित्रसंबंधी धाराकी भजना होती है ।
५. जहाँ क्षायिकचारित्र है वहाँ मोहनीयका अभाव है; और जहाँ मोहनीयका अभाव है, वहाँ पहिला, दूसरा, तीसरा और ग्यारहवाँ इन चार गुणस्थानोंकी स्पर्शनाका अभाव है ।
६. उदय दो प्रकारका है : - एक प्रदेशोदय और दूसरा विपाकोदय । विपाकोदय बाह्य ( दिखती हुई ) रीति से वेदन किया जाता है, और प्रदेशोदय भीतर से वेदन किया जाता है । ७. आयुकर्मका बंध प्रकृतिके बिना नहीं होता, परन्तु वेदनीयका होता है ।
८. आयुप्रकृति एक ही भवमें वेदन की जाती है। दूसरी प्रकृतियाँ उस भवमें और दूसरे भवमें भी वेदन की जाती हैं ।
९. जीव जिस भवकी आयुप्रकृतिका भोग करता है, वह समस्त भवकी एक ही बंधप्रकृति है । उस बंधप्रकृतिका उदय, जहाँसे आयुका आरंभ हुआ वहींसे गिना जाता है । इस कारण उस भवकी आयुप्रकृति उदयमें है; उसमें संक्रमण, उत्कर्ष, अपकर्ष आदि नहीं हो सकते ।
१०. आयुकर्मकी प्रकृति दूसरे भवमें नहीं भोगी जाती ।
११. गति, जाति, स्थिति, संबंध, अवगाह ( शरीरप्रमाण) और रसको, अमुक जीवमें अमुक प्रमाणमें भोगनेका आधार आयुकर्मके ही ऊपर है। उदाहरणके लिये, किसी मनुष्यकी सौवर्ष की आयुकर्मप्रकृतिका उदय हो; और उसमेंसे यदि वह अस्सीवें वर्षमें अधूरी आयुमें मर जाय, तो फिर बाकीके बीस
कहाँ और किस तरहसे भोगे जायेगे ? क्योंकि दूसरे भवमें तो गति, जाति, स्थिति, संबंध आदि सब नये सिरे से ही होते हैं - इक्यासीवें वर्षसे नहीं होते। इस कारण आयुउदय प्रकृति बीचमेंसे नहीं टूट सकती । जिस जिस प्रकारसे बंध पड़ा हो, उस उस प्रकारसे वह उदयमें आता है; इससे किसीको कदाचित् आयुका त्रुटित होना मालूम हो सकता है, परन्तु ऐसा बन नहीं सकता ।