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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ८३६
(२) x देह जीव एकरूपे भासे छे अज्ञान वडे, क्रियानी प्रवृत्ति पण तेथी तेम थाय छे जीवनी उत्पत्ति अने रोग शोक दुःख मृत्यु, देहनो स्वभाव जीवपदमां जणाय छ । एवो जे अनादि एकरूपनो मिथ्यात्वभाव, ज्ञानिनां वचन बडे दूर थई जाय छे भासे जड चैतन्यनो प्रगट स्वभाव भिन्न, बने द्रव्य निज निजरूपे स्थित थाय छे ।
* जन्म जरा ने मृत्यु मुख्य दुःखना हेतु । कारण तेनां वे कह्यां रागद्वेष अणहेतु ॥
(४) + वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूळ ।
औषध जे भवरोगना, कायरने प्रतिकूळ ॥
प्राणीमात्रका रक्षक, बांधव और हितकारी, यदि ऐसा कोई उपाय हो तो वह वीतरागधर्म ही है।
(६)
संतजनो! जिनेन्द्रवरोंने लोक आदि जो स्वरूप वर्णन किया है, वह अलंकारिक भाषामें योगाभ्यास और लोक आदिके स्वरूपका निरूपण है; वह पूर्ण योगाभ्यासके बिना ज्ञानगोचर नहीं हो सकता । इसलिये तुम अपने अपूर्ण ज्ञानके आधारसे वीतरागके वाक्योंका विरोध करनेवाले नहीं, परन्तु योगका अभ्यास करके पूर्णतासे उस स्वरूपके ज्ञाता होना।
८३६ बम्बई, कार्तिक वदी १९, १९५५ (१) इनॉक्युलेशन-महामारीका टीका | टीकेके नामपर, देखो, डाक्टरोंने यह तूफान खड़ा किया है । बिचारे घोड़े आदिको टीकेके बहाने वे क्रूरतासे मार डालते हैं, हिंसा करके पापका पोषण करते हैं-पाप उपार्जन करते हैं । पूर्वमें पापानुबंधी जो पुण्य उपार्जन किया है, उसके योगसे ही वे वर्तमानमें पुण्यको भोगते हैं, परन्तु परिणाममें वे पाप ही इकहा करते हैं इसकी बिचारे डाक्टरोंको खबर भी नहीं है। टीका लगानेसे जब रोग दूर हो जाय तबकी बात तो तब रही, परन्तु इस समय तो उसमें हिंसा प्रगट है । टीका लगानेसे एक रोग दूर करते हुए दूसरा रोग भी खड़ा हो जाता है।
x देह और जीव मशानसे ही एकरूप मासित होते हैं। उससे क्रियाकी प्रवृत्ति भी वैसी ही होती है। जीवकी उत्पत्ति और रोग, शोक, दुःख मृत्यु यह जो देहका स्वभाव है, वह अशानसे ही जीवपदमै मालूम होता है। ऐसा जो अनादिका जीव और देहको एकरूप माननेका मिथ्यात्वभाव है, वह शानीके वचनसे दूर हो जाता है। तथा उस समय जब और चैतन्यका स्वभाव स्पष्ट मित्र भिम मालूम होने लगता है, और दोनों द्रव्य अपने अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।
* जन्म जरा और मृत्यु ये दुःखके मुख्य हेतु है। उसके राग और देष ये दो कारण है। + वीतरागके वचनामृत परम शांतरसके मूल है। वह भवरोगकी मौषष है, जो कायर पुरुषको प्रतिकूल होती है।