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श्रीमद् राजचन्द्र
[ पत्र ८४४, ८४५
भावसे तो भोग करते जाना और कहना कि आत्माको कर्म लगते नहीं, तो वह ज्ञानीकी दृष्टिका वचन 1- वह केवल वचन -ज्ञानीका ही वचन है ।
नहीं
(११) प्रश्न: - जैन दर्शन कहता है कि पुद्गलभावके कम होनेपर आत्मध्यान फलीभूत होगा, तो क्या यह ठीक है ?
उत्तरः- वह यथार्थ कहता है ।
७६४
( १२ ) प्रश्न: - स्वभावदशा क्या फल देती है ? उत्तर:—वह तथारूप सम्पूर्ण हो तो मोक्ष होती है । (१३) प्रश्न: - - विभावदशा क्या फल देती है ? उत्तर: – जन्म, जरा मरण आदि संसार ।
(१४) प्रश्न: - वीतरागकी आज्ञासे यदि पोरसीकी स्वाध्याय करे तो उससे क्या फल होता है ? उत्तर:- वह तथारूप हो तो यावत् काल मोक्ष होती है ।
( १५ ) प्रश्न: - वीतरागकी आज्ञासे यदि xपोरसीका ध्यान करे तो क्या फल होता है ? उत्तर:- वह तथारूप हो तो यावत् काल मोक्ष होती है ।
- इस तरह तुम्हारे प्रश्नोंका संक्षेपसे उत्तर लिखता हूँ ।
३. लौकिकभाव छोड़कर, वचनज्ञान छोड़कर, कल्पित विधिनिषेधका त्यागकर, जो जीव प्रत्यक्ष ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन कर, तथारूप उपदेश लेकर, तथारूप आत्मार्थ में प्रवृत्ति करता है, उसका अवश्य कल्याण होता है ।
निजकल्पना से ज्ञान दर्शन चारित्र आदिका स्वरूप चाहे जिस तरह समझकर, अथवा निश्चयात्मक बोल सीखकर, जो सद्व्यवहारके लोप करनेमें प्रवृत्ति करे, उससे आत्माका कल्याण होना संभव नहीं । अथवा कल्पित व्यवहारके दुराग्रहमें रुके रहकर, प्रवृत्ति करते हुए भी जीवका कल्याण होना संभव नहीं ।
* ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहां समजवुं तेह |
त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ॥
एकांत क्रिया - जडत्वमें अथवा एकांत शुष्कज्ञानसे जीवका कल्याण नहीं होता ।
८४४ ववाणी, वैशाख वदी ८ मंगल. १९५६
ॐ प्रमत्त अत्यंत प्रमत्त ऐसे आजकलके जीव हैं, और परमपुरुषोंने अप्रमत्तमें सहज आत्मशुद्धि कही है । इसलिये उस विरोधके शांत होनेके लिये परमपुरुषका समागम - चरणका योग-ही परम हितकारी है । ॐ शान्तिः .
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ववाणी, वैशाख वदी ९ बुध. १९५६
ॐ. मोक्षमालामें शब्दांतर अथवा प्रसंगविशेषमें कोई वाक्यांतर करनेकी वृत्ति हो तो करना । उपोद्घात आदि लिखनेकी वृत्ति हो तो लिखना । जीवनचरित्रकी वृत्ति उपशांत करना ।
x यह एक प्रकारका तपविशेष है। इसमें प्रथम प्रहरतक भोजन आदिका त्याग किया जाता है । * आत्मसिद्धि ८. - अनुवादक.
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