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७८ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ८५५ अवकाश मुख्यतया आत्म-विचारमें, पद्मनन्दि आदि शास्त्रोंके अवलोकनमें, और आत्मध्यानमें व्यतीत करना उचित है । कोई बाई या भाई कभी कुछ प्रश्न आदि करें तो उनका उचित समाधान करना चाहिये, जिससे उनकी आत्मा शांत हो । अशुद्ध क्रियाके निषेधक वचन उपदेशरूपसे न कहते हुए, जिस तरह शुद्ध क्रियामें लोगोंकी रुचि बढ़े, उस तरह क्रिया कराते रहना चाहिये ।।
उदाहरणके लिये, जैसे कोई मनुष्य अपनी रूढ़ीके अनुसार सामायिक व्रत करता है, तो उसका निषेध न करते हुए, जिससे उसका वह समय उपदेशके श्रवणमें, सत्शास्त्रके अध्ययनमें अथवा कायोत्सर्गमें व्यतीत हो, उस तरह उसे उपदेश करना चाहिये । किंचित्मात्र आभासरूपसे भी सामायिक व्रत आदिका निषेध हृदयमें भी न आवे, उसे ऐसी गंभीरतासे शुद्ध क्रियाकी प्रेरणा करनी चाहिये ।
स्पष्ट प्रेरणा करते हुए भी क्रियासे रहित होकर जीव उन्मत्त हो जाता है; अथवा ' तुम्हारी यह क्रिया बराबर नहीं'- इतना कहनेसे भी, तुम्हें दोष देकर वह उस क्रियाको छोड़ देता है-ऐसा प्रमत्त जीवोंका स्वभाव है; और लोगोंकी दृष्टिमें ऐसा आता है कि तुमने ही क्रियाका निषेध किया है । इसलिये मतभेदसे दूर रहकर, मध्यस्थवत् रहकर, अपनी आत्माका हित करते हुए, ज्यों ज्यों दूसरेकी आत्माका हित हो, त्यों त्यों प्रवृत्ति करनी चाहिये और ज्ञानीके मार्गका, ज्ञान-क्रियाका समन्वय स्थापित करना चाहिये, यही निर्जराका सुन्दर मार्ग है।
स्वात्महितमें जिससे प्रमाद न हो, और दूसरेको अविक्षेपभावसे आस्तिक्यवृत्ति बँधे, वैसा उसका श्रवण हो, क्रियाकी वृद्धि हो, तथा कल्पित भेदोंकी वृद्धि न हो, और अपनी और परकी आत्माको शांति हो, इस. तरह प्रवृत्ति कराने में उल्लासित वृत्ति रखना । सत्शास्त्रके प्रति जिससे रुचि बढ़े वैसा करना । ॐ शान्तिः.
(२) १. x ते माटे उभा कर जोडी, जिनवर आगळ कहिये रे ।
समयचरण सेवा शुद्ध देजो, जेम आनंदघन लहिये रे॥ . २. मुमुक्षु भाईयोंको, जिस तरह लोक-विरुद्ध न हो, उस तरह तीर्थके लिये गमन करनेमें आज्ञाका अतिक्रम नहीं । ॐ. शांतिः.
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मोरबी, आषाढ वदी ९ शुक्र. १९५६
१. सम्यक् प्रकारसे वेदना सहन करनेरूप परमपुरुषोंने परमधर्म कहा है। २. तीक्ष्ण वेदनाका अनुभव करते हुए स्वरूप-भ्रंशवृत्ति न हो, यही शुद्ध चारित्रका मार्ग है।
३. उपशम ही जिस ज्ञानका मूल है, उस ज्ञानमें तीक्ष्ण वेदना परम निर्जरा भासने योग्य है । ॐ शान्तिः.
(२)
ॐ. आषाद पूर्णिमातक चातुर्माससंबंधी जो किंचित् भी अपराध हुआ हो, उसकी नम्रतासे क्षमा माँगता हूँ। * अर्थके लिये देखो. अंक ६८५.
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