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पत्र ८५१,८५२,८५३,८५४] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष ।
७६७ समयके अनुसार मनुष्यकी प्रकृति न हो तो मनुष्यका वजन नहीं पड़ता। तथा वजनरहित मनुष्य इस जगत्में किसी कामका नहीं।
अपनेको मिली हुई मनुष्यदेह भगवान्की भक्ति और अच्छे काममें व्यतीत करनी चाहिये ।
८५१ ववाणीआ, ज्येष्ठ वदी १०, १९५६ ॐ. पत्र मिला । शरीर-प्रकृति स्वस्थास्वस्थ रहती है, विक्षेप करना योग्य नहीं। हे आर्य ! अंतर्मुख होनेका अभ्यास करो । शांतिः ।
८५२ ववाणीआ, ज्येष्ठ वदी १५ बुध. १९५६ ॐ परम पुरुषको अभिमत अभ्यंतर और बाह्य दोनों संयमको उल्लासित भक्तिसे नमस्कार हो !
मोक्षमालाके संबंधमें जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो।
मनुष्यता, आर्यता, ज्ञानीके वचनोंका श्रवण, उसके प्रति आस्तिक्यभाव, संयम, उसके प्रति वीर्यप्रवृत्ति, प्रतिकूल योगोंमें भी स्थिति होना, अंतपर्यंत सम्पूर्ण मार्गरूप समुद्रका पार हो जाना—ये उत्तरोत्तर दुर्लभ और अत्यंत कठिन हैं; इसमें सन्देह नहीं ।
शरीर-प्रकृति कचित् ठीक देखनेमें आती है, और कचित् उससे विपरीत भी देखने में आती है । इस समय कुछ असाताकी मुख्यता देखनेमें आती है। ॐ शान्तिः.
ॐ. चक्रवतीकी समस्त संपत्तिकी अपेक्षा भी जिसका एक समयमात्र भी विशेष मूल्यवान है, ऐसी इस मनुष्यदेहका, और परमार्थको अनुकूल योग प्राप्त होनेपर यदि जन्म मरणसे रहित परमपदका ध्यान न रहा, तो इस मनुष्यजन्मको अधिष्ठित इस आत्माको अनंतबार धिक्कार हो ।
जिन्होंने प्रमादका जय किया, उन्होंने परमपदका जय किया । शांतिः.
शरीर-प्रकृतिकी अनुकूल-प्रतिकूलताके आधीन उपयोग करना उचित नहीं । शान्तिः.
जिससे मनचिंता प्राप्त हो, उस मणिको चिंतामणि कहा है । यह यही मनुष्य देह है कि जिस देहमें-योगमें-आत्यंतिक सर्व दुःखके क्षय करनेका चिंतन किया हो तो पार पड़ती है।
जिसका अचिन्त्य माहात्म्य है, ऐसा सत्संगरूपी कल्पवृक्ष प्राप्त होनेपर भी जीव दरिद्र बना रहे, तो इस जगत्में यह ग्यारहवाँ आश्चर्य है।
८५४ ववाणीआ, आषाद सुदी १ गुरु. १९५६
(१) . ॐ. दो समय उपदेश और एक समय आहार-ग्रहण, तथा निद्राके समयको छोड़कर बाकीका