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भीमद् राजवन्द्र
[८३३ बीचके अवकाशमें स्वाध्यायमें लीनता करनी चाहिये । सर्व पर द्रव्योंमें एक समय भी उपयोग संगको न पावे, जब ऐसी दशाका जीव सेवन करता है, तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है ।
परम गुणमय चारित्र चाहिये । बलवान
असंग आदि स्वभाव. परम निर्दोष श्रुत. परम प्रतीति. परम पराक्रम. परम इन्द्रियजय.
१ मूलका विशेषता. २ मार्गके प्रारंभसे लगाकर अंततककी
अद्भुत संकलना। ३ निर्विवाद४ मुनिधर्म-प्रकाश. ५ गृहस्थधर्म-प्रकाश. ६ निग्रंथ परिभाषा-निधि. ७ श्रुतसमुद्र-प्रवेशमार्ग.
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(१) वीतरागदर्शन-संक्षेप. मंगलाचरण-शुद्ध पदको नमस्कार. _भूमिकाः-मोक्षप्रयोजन.
उस दुःखके दूर होनेके लिये, भिन्न भिन्न मतोंका पृथक्करण करके देखनेसे, उसमें वीतरागदर्शन पूर्ण और अविरुद्ध है, ऐसा सामान्य कथन; उस दर्शनका स्वरूप.
उसकी जीवको अप्राप्ति, और प्रातिसे अनास्था होनेके कारण. मोक्षामिलाषी जीवको उस दर्शनकी कैसे उपासना करनी चाहिये ।
आस्था-उस आस्थाके प्रकार और हेतु. विचार-उस विचारके प्रकार और हेतु. विशुद्धि-उस विशुद्धिके प्रकार और हेतु. मध्यस्थ रहनेके स्थानक-उसके कारण.
धीरजके स्थानक-उसके कारण.
शंकाके स्थानक-उसके कारण, पतित होनेके स्थानक-उसके कारण.
उपसंहार.
. .. .. आस्था .
पदार्थकी अचिंत्यता, बुद्धिमें ब्यायोह, कालदोष.