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भीमद् राजबन्द्र
[पत्र ८३९
वियोग करनेके मार्गको गवेषण करनेके लिये तत्पर हुए; और उस सन्मार्गका गवेषण कर, प्रतीति कर, उसका यथायोग्य आराधन कर, अव्याबाध मुखस्वरूप आत्माके सहज शुद्ध स्वभावरूप परम पदमें लीन हो गये।
साता असाताका उदय अथवा अनुभव प्राप्त होनेके मूल कारणोंकी गवेषणा करनेवाले ऐसे उन महान् पुरुषोंको ऐसी विलक्षण सानंद आश्चर्यकारक वृत्ति उद्भूत होती थी कि साताकी अपेक्षा असाताका उदय प्राप्त होनेपर, और उसमें भी तीव्रतासे उस उदयके प्राप्त होनेपर, उनका वीर्य विशेषरूपसे जाग्रत होता था, उल्लासित होता था, और वह समय अधिकतासे कल्याणकारी समझा जाता था। कितने ही कारणविशेषके योगसे व्यवहारदृष्टिसे, वे ग्रहण करने याग्य औषध आदिको आत्ममर्यादामें रहकर ग्रहण करते थे, परन्तु मुख्यतया वे उस परम उपशमकी ही सर्वोत्कृष्ट औषधरूपसे उपासना करते थे।
(१) उपयोग लक्षणसे सनातन-स्फुरित ऐसी आत्माको देहसे (तैजस और कार्माण शरीरस) भी भिन्न अवलोकन करनेकी दृष्टिको साध्य कर; (२) वह चैतन्यात्मक स्वभाव-आत्मा-निरंतर वेदक स्वभाववाली होनेसे, अबंधदशाको जबतक प्राप्त न हो, तबतक साता-असातारूप अनुभवका वेदन हुए बिना रहनेवाला नहीं, यह निश्चय कर; (३) जिस शुभाशुभ परिणामधाराकी परिणतिसे वह साता असाताका बंध करती है, उस धाराके प्रति उदासीन होकर; (४) देह आदिसे भिन्न और स्वरूपमर्यादामें रहनेवाली उस आत्मामें जो चल स्वभावरूप परिणाम-धारा है, उसका आत्यंतिक वियोग करनेका सन्मार्ग ग्रहण कर; (५) परम शुद्ध चैतन्यस्वभावरूप प्रकाशमय वह आत्मा कर्मयोगसे जो सकलंक परिणाम प्रदर्शित करती है, उससे उपशम प्राप्त कर; जिस तरह उपशमयुक्त हुआ जाय, उस उपयोगमें और उस स्वरूपमें स्थिर हुआ जाय, अचल हुआ जाय, वही लक्ष, वही भावना, वही चितवना और वही सहज परिणामरूप स्वभाव करना उचित है। महात्माओंकी बारम्बार यही शिक्षा है।
उस सन्मार्गकी गवेषणा करते हुए, प्रतीति करनेकी इच्छा करते हुए, उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते हुए, आत्मार्थी जनको परमवीतरागस्वरूप देव, स्वरूपनैष्ठिक निस्पृह निग्रंथरूप गुरु, परमदयामूल धर्मव्यवहार, और परमशांतरस रहस्यवाक्यमय सत्शास्त्र, सन्मार्गकी सम्पूर्णता होनेतक, परम भक्तिसे उपासना करने योग्य हैं; जो आत्माके कल्याणका परम कारण है।
भीसण नरयगईए, तिरियाईए कुदेवमणुयगईए।
पत्तोसि तिव्वदुःखं, भावहि जिणभावणा जीव ॥ -भयंकर नरकगतिमें, तिथंचगतिमें, और कुदेव तथा मनुष्यगतिमें, हे जीव ! तूने तीन दुःखको पाया, इसलिये अब तू जिनभावनाका (जिनभगवान् जो परम शांतरससे परिणमकर स्वरूपस्थ हुए उस परमशांतस्वरूप चितवनाका ) भाव न कर-चितवन कर (जिससे उन अनंत दुःखोंका आत्यंतिक वियोग होकर, परम अन्याबाध सुख-सम्पत्ति प्राप्त हो)। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
(२) जहाँ जनवृत्ति असंकुचित भावसे संभव होती हो, और जहाँ निवृत्तिके योग्य विशेष कारण हों, ऐसे क्षेत्रमें महान पुरुषोंको विहार चातुर्मासरूप स्थिति करनी चाहिये । शांतिः ।