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पत्र ८३९ ]
विविध पत्र आदि संग्रह - ३३वाँ वर्ष
( ३ )
ॐ नमः
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१. उपशमश्रेणी में मुख्य रूप से उपशमसम्यक्त्व संभव है ।
२. चार घनघाति कर्मोंका क्षय होनेसे अंतराय कर्मकी प्रकृतिका भी क्षय होता है; और उससे दानांतराय, लाभांतराय, वीर्यांतराय, भोगांतराय और उपभोगान्तराय इस पाँच प्रकारके अंतरायका क्षय होकर, अनंत दानलब्धि, अनंत लाभलब्धि, अनंत वीर्यलब्धि और अनंत भोगउपभोगलब्धि प्राप्त होती है । इस कारण जिसका वह अंतराय कर्म क्षय हो गया है, ऐसा परमपुरुष अनंत दान आदि देने को सम्पूर्ण समर्थ है।
तथापि परमपुरुष पुद्गल द्रव्यरूपसे इन दानादि लब्धियोंकी प्रवृत्ति नहीं करता । मुख्यतया तो उस लब्धिकी प्राप्ति भी आत्माकी स्वरूपभूत ही है, क्योंकि वह प्राप्ति क्षायिकभावसे होती है, औदयिकभाव से नहीं; इस कारण वह आत्मस्वभावकी स्वरूपभूत ही है । तथा जो आत्मामें अनंत सामर्थ्य अनादिसे शक्तिरूपसे मौजूद थी, उसके व्यक्त होनेसे आत्मा उसे निजस्वरूपमें ला सकती है— तद्रूप शुद्ध स्वच्छभावसे वह उसे एक स्वभावसे परिणमा सकती है— उसे अनंत दानलब्धि कहना चाहिये । इसी तरह अनंत आत्मसामर्थ्य की प्राप्तिमें किंचित्मात्र भी वियोगका कारण नहीं रहा, इसलिये उसे अनंत लाभलब्धि कहना चाहिये । तथा अनंत आत्मसामर्थ्य की प्राप्ति सम्पूर्णरूप से परमानंदस्वरूपसे अनुभवमें आती है; उसमें भी किंचित् मात्र भी वियोगका कारण नहीं रहा, इस कारण उसे अनंत भोगउपभोगलब्धि कहना चाहिये। इसी तरह अनंत आत्मसामर्थ्य की प्राप्ति पूर्ण होनेपर, जिससे उस सामर्थ्य के अनुभवसे आत्मशक्ति थक जाय, उसकी सामर्थ्यको न उठा सके, वहन न कर सके, अथवा उस सामर्थ्यको किसी भी प्रकार के देशकालका असर होकर, किंचित्मात्र भी न्यूनाधिकता करावे, ऐसा कुछ भी बाकी नहीं रहा, उस स्वभावमें रहनेकी सम्पूर्ण सामर्थ्य त्रिकाल सम्पूर्ण बलसहित रहना है, उसे अनंत वीर्यलब्धि समझना चाहिये ।
क्षायिकभावकी दृष्टिसे देखनेसे ऊपर कहे अनुसार उस लब्धिका परमपुरुषको उपयोग रहता है । तथा ये पाँच लब्धियाँ हेतुविशेषसे समझाने के वास्ते ही भिन्न भिन्न बताई हैं; नहीं तो अनन्तवीर्य लब्धिमें भी उन पाँचोंका समावेश हो सकता है । आत्मामें ऐसी सामर्थ्य है कि वह सम्पूर्ण वीर्यको प्राप्त होनेसे, इन पाँचों लब्धियोंका पुद्गल द्रव्यरूपसे उपयोग कर सकती है; तथापि कृतकृत्य परमपुरुषमें सम्पूर्ण वीतराग स्वभाव होने के कारण वह उपयोग संभव नहीं । और उपदेश आदिके दानरूपसे जो उस कृतकृत्य परमपुरुषकी प्रवृत्ति है, वह योगाश्रित पूर्वबंधके उदय होनेसे ही है, आत्मस्वभावके किंचित् भी विकृतभावसे नहीं ।
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इस तरह संक्षेपमें उत्तर समझना । निवृत्तिवाला अवसर प्राप्त कर अधिकाधिक मनन करनेसे विशेष समाधान और निर्जरा होगी । सोल्लास चित्तसे ज्ञानीकी अनुप्रेक्षा करनेसे अनंत कर्मका क्षय होता है । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः.