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पत्र ८.६].
विविध पत्र आदि संग्रह-३२वाँ वर्ष
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८०६ मोरबी चैत्र वदी १४, १९५५ ॐ. श्रीहेमचन्द्राचार्यको हुए आठसौ बरस हो गये। श्रीआनंदधनजीको दोसौ बरस हो गये। श्रीहेमचन्द्राचार्यने लोकानुग्रहमें आत्मसमर्पण किया। श्रीआनंदघनजीने आत्महित-साधन-प्रवृत्तिको मुख्य बनाया । श्रीहेमचन्द्राचार्य महाप्रभावक बलवान क्षयोपशमवाले पुरुष थे । वे इतने सामर्थ्यवान् थे कि वे चाहते तो एक जुदा ही पंथ चला सकते थे। उन्होंने तीस हजार घरोंको श्रावक बनाया। तीस हज़ार घर अर्थात् सवा लाखसे डेढ़ लाख मनुष्योंकी संख्या हुई । श्रीसहजानन्दजीके सम्प्रदायमें कुल एक लाख आदमी होंगे । जब एक लाखके समूहसे सहजानंदजीने अपना सम्प्रदाय चलाया, तो श्रीहेमचन्द्राचार्य चाहते तो डेढ़ लाख अनुयायियोंका एक जुदा ही सम्प्रदाय चला सकते थे।
परन्तु श्रीहेमचन्द्राचार्यको लगा कि सम्पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर ही धर्मप्रवर्तक हो सकते हैं। हम तो केवल उन तीर्थंकरकी आज्ञासे चलकर उनके परमार्थमार्गको प्रकाश करनेके लिये प्रयत्न करनेवाले हैं। श्रीहेमचन्द्राचार्यने वीतरागमार्गके परमार्थका प्रकाश करनेरूप लोकानुग्रह किया । वैसा करनेकी ज़रूरत भी थी । वीतरागमार्गके प्रति विमुखता और अन्यमार्गकी तरफसे विषमता ईर्ष्या आदि आरंभ हो चुके थे । ऐसी विषमतामें लोगोंको वीतरागमार्गकी ओर फिराने, लोकोपकार करने तथा उस मार्गके रक्षण करनेकी उन्हें ज़रूरत मालूम हुई । हमारा चाहे कुछ भी हो, इस मार्गका रक्षण होना ही चाहिये । इस तरह उन्होंने अपने आपको अर्पण कर दिया । परन्तु इस तरह उन जैसे ही कर सकते हैंवैसे भाग्यवान, माहात्म्यवान, क्षयोपशमवान ही कर सकते हैं। जुदा जुदा दर्शनोंको यथावत् तोलकर अमुक दर्शन सम्पूर्ण सत्यस्वरूप है, जो ऐसा निश्चय कर सके, ऐसा पुरुष ही लोकानुग्रह परमार्थप्रकाश और आत्मसमर्पण कर सकता है।
श्रीहेमचन्द्राचार्यने बहुत किया। श्रीआनंदघनजी उनके छहसौ बरस बादमें हुए । इस छहसौ बरसके भीतर वैसे दूसरे हेमचन्द्राचार्यकी ज़रूरत थी । विषमता व्याप्त होती जा रही थी। काल उग्र रूप धारण करता जाता था । श्रीवल्लभाचार्यने शृंगारयुक्त धर्मका प्ररूपण किया । लोग शृंगारयुक्त धर्मकी ओर फिरे-उस ओर आकर्षित हुए । वीतरागधर्मके प्रति विमुखता बढ़ती गई । जीव अनादिसे ही शृंगार आदि विभावमें मूर्छा प्राप्त कर रहा है। उसे वैराग्यके सन्मुख होना मुश्किल है। वहाँ फिर यदि उसके पास शृंगारको ही धर्मरूपसे रक्खा जाय, तो फिर वह वैराग्यकी ओर किस तरह फिर सकता है ! इस तरह वीतरागमार्गकी विमुखता बढ़ी।।
वहाँ फिर प्रतिमा-प्रतिपक्ष संप्रदाय ही जैनधर्ममें खड़ा हो गया। उससे, ध्यानका कार्य और स्वरूपका कारण ऐसी जिन-प्रतिमाके प्रति लाखों लोग दृष्टि-विमुख हो गये । वीतरागशास्त्र कल्पित अर्थसे विराधित हुए-कितने तो समूल ही खंडित किये गये । इस तरह इन छहसौ बरसके अंतरालमें वीतरागमार्गके रक्षक दूसरे हेमचन्द्राचार्यकी ज़रूरत थी । आचार्य तो अन्य भी बहुतसे हुए हैं, परन्तु वे श्रीहेमचन्द्राचार्य जैसे प्रभावशाली नहीं हुए, अर्थात् वे विषमताके सामने नहीं टिक सके । विषमता बढ़ती गई। उससमय दोसौ बरस पूर्व श्रीआनन्दघनजी हुए।
श्रीआनंदघनजीने स्वपर-हितबुद्धिसे लोकोपकार-प्रवृत्ति आरंभ की। उन्होंने इस मुख्य प्रवृत्तिम आत्महितको गौण किया; परन्तु वीतरागधर्म-विमुखता-विषमता-इतनी अधिक बढ़ गई थी कि