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८१६,८१७,८१८,८१९,८२०] विविध पत्र आदि संग्रह-३२वाँ वर्ष
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बम्बई, ज्येष्ठ १९५५ ॐ. अहो सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम !
सुषुप्त चेतनको जाग्रत करनेवाले; पतित होती हुई वृत्तिको स्थिर रखनेवाले; दर्शनमात्रसे भी निर्दोष अपूर्व स्वभावके प्रेरक; स्वरूप प्रतीति, अप्रमत्त संयम और पूर्ण वीतराग निर्विकल्प स्वभावके कारणभूत; और अन्तमें अयोगी स्वभाव प्रगट कर, अनंत अव्याबाध स्वरूपमें स्थिति करानेवाले ! त्रिकाल जयवंत वर्तो ! ॐ शान्तिः शान्तिः..
___ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी ११ भौम. १९५५ (१) यदि मुनि अध्ययन करते हों तो योगप्रदीप श्रवण करना । कात्तिकेयानुप्रेक्षाका योग तुम्हें बहुत करके मिलेगा। * (२) जेनो काळ ते किंकर थई रह्यो, मृगतृष्णाजल लोक ॥ जीव्युं धन्य तेहनु ।
दासी आशा पिशाची थई रही, कामक्रोध ते केदी लोक ।। जीव्युं० । दीसे खाता पीतां बोलता, नित्ये छ निरंजन निराकार ॥ जीव्युं० । जाणे संत सलोणा तेहने, जेने होय छेलो अवतार ॥ जीव्यु। जगपावनकर ते अवतयों, अन्य मातउदरनो भार ॥ जीव्यु। तेने चौद लोकमा विचरता, अंतराय कोये नव थाय ॥ जीव्यु। रिधिसिधियो दासियो थई रही, ब्रह्मानंद हृदे न समाय ॥ जीव्युः ।
८१८ बम्बई, ज्येष्ठ वदी २ रवि. १९५५ ॐ: जिस विषयकी चर्चा चलती है वह ज्ञान है । उसके संबंधमें यथावसरोदय ।
८१९ बम्बई, ज्येष्ठ वदी ७ शुक्र. १९५५ व्यवहार-प्रतिबंधसे विक्षेप न पाकर, धैर्य रखकर उत्साहमान वीर्यसे स्वरूपनिष्ठ वृत्ति करना योग्य है।
८२० मोहमयी, आषाढ़ सुदी ८ रवि. १९५५ .१. इससे सरल दूसरा क्रियाकोष नहीं । विशेष अवलोकन करनेसे स्पष्टार्थ होगा।
* जिसका काल किंकर हो गया है, और जिसे लोक मृगतृष्णाके जलके समान मालूम होता है, उसका जीना धन्य है| जिसकी आशारूपी पिशाचिनी दासी है, और काम क्रोध जिसके बन्दी लोग है, उसका जीना धन्य है। जो यद्यपि खाता, पीता और बोलता हुआ दिखाई देता है, परन्तु जो नित्य निरंजन और निराकार है, उसका जीना धत्य है। उसे सलोना संत जानो और उसका यह आन्तिम भव है, उसका जीना धन्य है। उसने जगत्को पवित्र करनेके लिये अवतार लिया है। बाकी तो सब माताके उदरके भारभूत ही है, उसका जीना धन्य है। उसे चौदह लोकमें विचरण करते हुए किसीसे भी अंतराय नहीं होता, उसका जीना धन्य है। उसकी ऋदि सिद्धि सब दासियों हो गई हैं, और उसके हृदयमें ब्रह्मानन्द नहीं समाता, उसका जीना धन्य है।