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पत्र ८२४, ८२५, ८२६ ] विविध पत्र मादि संग्रह-३२वाँ वर्ष ।
उत्तरोत्तर गुणोंकी वृद्धि होनेमें गृहवासी जनोंको सदुधमरूप आजीविका-व्यवहारसहित प्रवृत्ति करना योग्य है। बहुतसे शास्त्र और वाक्योंका अभ्यास करते हुए भी, जीव यदि ज्ञानी-पुरुषोंकी एक एक आज्ञाकी उपासना करे, तो बहुतसे शास्त्रोंसे होनेवाला फल सहजमें ही प्राप्त हो जाय ।
८२४ मोहमयी क्षेत्र, श्रावण सुदी ७, १९५५ ॐ. श्रीपभनन्दि शास्त्रकी एक प्रति, किसी अच्छे आदमीके हाथ, जिससे वसो क्षेत्रमें मुनिश्रीको प्राप्त हो, ऐसा करना।
बलवान निवृत्तिवाले द्रव्य क्षेत्र आदि योगमें उस शास्त्रका तुम बारम्बार मनन और निदिध्यासन करना । प्रवृत्तिवाले द्रव्य क्षेत्र आदिमें उस शास्त्रको बाँचना योग्य नहीं।
जब तीन योगकी अल्प प्रवृत्ति हो-वह भी सम्यक् प्रवृत्ति हो- तब महान् पुरुषके वचना. मृतका मनन परम श्रेयके मूलको दृढ़ करता है-वह क्रमसे परमपदको प्राप्त कराता है। चित्तको विक्षेपरहित रखकर परमशांत श्रुतका अनुप्रेक्षण करना चाहिये ।
८२५ मोहमयी, श्रावण सुदी ७, १९५५ अगम्य होनेपर भी सरल ऐसे महान् पुरुषोंके मार्गको नमस्कार हो!
१. महान् भाग्यके उदयसे अथवा पूर्वके अभ्यस्त योगसे जीवको सच्ची मुमुक्षुता उत्पन्न होती है जो अति दुर्लभ है । वह सच्ची मुमुक्षुता प्रायः महान् पुरुषोंके चरणकमलकी उपासनासे प्राप्त होती है, अथवा वैसी मुमुक्षुतावाली आत्माको महान् पुरुषके योगसे आत्मनिष्ठभाव होता है-सनातन अनंत ज्ञानी-पुरुषोंद्वारा उपासित सन्मार्ग प्राप्त होता है । सच्ची मुमुक्षुता जिसे प्राप्त हो गई हो, उसे भी ज्ञानीका समागम और आज्ञा, अप्रमत्तयोग कराते हैं। मुख्य मोक्षमार्गका क्रम इस तरह मालूम होता है।
. २. वर्तमानकालमें ऐसे महान् पुरुषका योग अति दुर्लभ है। क्योंकि उत्तम कालमें भी उस योगकी दुर्लभता होती है। ऐसा होनेपर भी जिसे सच्ची मुमुक्षुता उत्पन्न हो गई हो, रात-दिन आत्मकल्याण होनेका तथारूप चिंतन रहा करता हो, वैसे पुरुषको वैसा योग प्राप्त होना सुलभ है।
३. आत्मानुशासन हालमें मनन करने योग्य है । शान्तिः.
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बम्बई, भाद्रपद सुदी ५ रवि. १९५५
- ॐ. जिन वचनोंकी आकांक्षा है, वे प्रायः थोड़े समयमें प्राप्त होंगे। इन्द्रियनिग्रहके अभ्यासपूर्वक सत्श्रुत और सत्समागमकी निरंतर उपासना करनी चाहिये ।
क्षीणमोहपर्यंत ज्ञानीकी आज्ञाका अवलंबन परम हितकारी है। . आज दिनतक तुम्हारे प्रति तथा तुम्हारे समीप रहनेवाली बाईयों और भाईयोंके प्रति योगके प्रमशस्वभावसे जो कुछ अन्यथा शुभा हो, उसके लिये नत्रभावसे. क्षमाकी याचना है। शमम्,