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भीमद् राजचन्द्र
[८२१, ८२२,.८२३ . २. शुद्ध आत्मस्थितिके पारमार्थिक श्रुत और इन्द्रियजय ये दो मुख्य अवलंबन हैं। उनकी सुद्धतापूर्वक उपासना करनेसे उनकी सिद्धि होती है।
हे आर्य ! निराशाके समय महात्मा पुरुषोंका अद्भुत चारित्र स्मरण करने योग्य है । उल्लासित वीर्यवान, परमतत्त्वकी उपासना करनेका मुख्य अधिकारी है।
३. अप्रमत्त स्वभावका बारम्बार स्मरण करते हैं । शान्तिः.
८२१ बम्बई, आषाढ वदी ८ रवि. १९५५ ॐ. मुमुक्षु तथा दूसरे जीवोंके उपकारके निमित्त जो उपकारशील बाह्य प्रतापकी सूचनाविज्ञप्ति की है, वह अथवा दूसरे कोई कारण किसी अपेक्षासे उपकारशील होते हैं।
हालमें वैसे प्रवृत्ति-स्वभावके प्रति उपशांत वृत्ति है। प्रारब्धयोगसे जो बने वह भी शुद्ध स्वभावके अनुसंधानपूर्वक ही होना योग्य है।
___ महात्माओंने निष्कारण करुणासे परमपदका उपदेश किया है । उससे यह मालूम होता है कि उस उपदेशका कार्य परम महान् ही है । सब जीवोंके प्रति बाह्य दयामें भी अप्रमत्त रहनेका जिसके योगका स्वभाव है, उसका आत्मस्वभाव सब जीवोंको परमपदके उपदेशका आकर्षक हो-वैसी निष्कारण करुणावाला हो-वह यथार्थ है।
८२२ बम्बई, आषाढ वदी ८ रवि. १९५५
ॐ नमः बिना नयन पावे नहीं, बिना नयनकी बात. इस वाक्यका मुख्य हेतु आत्मदृष्टिसंबंधी है । यह वाक्य स्वाभाविक उत्कर्षार्थके लिये है। समागमके योगमें इसका स्पष्टार्थ समझमें आ सकता है। तथा दूसरे प्रश्नोंके समाधानके लिये हालमें बहुत ही अल्प प्रवृत्ति रहती है । सत्समागमके योगमें उनका सहज ही समाधान हो सकता है।
_ 'बिना नयन' आदि वाक्यका अपनी निजकल्पनासे कुछ भी विचार न करते हुए, अथवा जिससे शुद्ध चैतन्यदृष्टिके प्रति जो वृत्ति है वह विक्षेप प्राप्त न करे, इस तरह आचरण करना चाहिये । कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा दूसरे सत्शाल बहुत करके थोड़े समयमें मिलेंगे।
दुःषम काल है, आयु अल्प है, सत्समागम दुर्लभ है, महात्माओंके प्रत्यक्ष वाक्य चरण और आज्ञाका योग मिलना कठिन है । इस कारण बलवान अप्रमत्त प्रयत्न करना चाहिये । शांतिः.
८२३ बम्बई, श्रावण मुदी ३, १९५५ ७. परमपुरुषकी मुख्य भक्ति, ऐसे. सदाचरणसे प्राप्त होती है जिससे उत्तरोत्तर गुणोंकी वृद्धि हो।
.. चरणप्रतिपति (शुद्ध आचरणकी उपासना ) रूप सदाचरण हानीकी मुख्य आया है, जो आज्ञा परमपुरुषकी मुख्य भक्ति है। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ... ... . . . . . .