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श्रीमद् राजचन्द्र
[७६७, ७६८
कारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखोंका निःसंशय आत्यंतिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवंत वर्तो, त्रिकाल जयवंत वर्तो!
२. उन श्रीमत् अनंत चतुष्टयस्थित भगवंतका और उस जयवंत धर्मका आश्रय सदैव करना चाहिये। जिन्हें दूसरी कोई सामर्थ्य नहीं, ऐसे अबुध और अशक्त मनुष्योंने भी उस आश्रयके बलसे परम सुखके हेतु अद्भुत फलको पाया है, पाते हैं और पावेंगे। इसलिये उसका निश्चय और आश्रय अवश्य ही करना चाहिये, अधीरजसे खेद नहीं करना चाहिये। .
३. चित्तमें देह आदि भयका विक्षेप भी करना उचित नहीं । जो पुरुष देहादिसंबंधी हर्ष-विषाद नहीं करते, वे पुरुष पूर्ण द्वादशांगको संक्षेपमें समझे हैं—ऐसा समझो । यही दृष्टि कर्त्तव्य है।
१. ' मैंने धम पाया नहीं, मैं धर्म कैसे पाऊँगा !' इत्यादि खेद न करते हुए, वीतरागपुरुषोंका धर्म देहादिसंबंधी हर्ष-विषाद वृत्तिको दूरकर, 'आत्मा असंग शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, ऐसी जो वृत्ति है उसका निश्चय और आश्रय ग्रहण कर, उसी वृत्तिका बल रखना; और जहाँ मंद वृत्ति होती हो वहाँ वीतरागपुरुषोंकी दशाका स्मरण करना, और उस अद्भुत चरित्रपर दृष्टि प्रेरित कर वृत्तिको अप्रमत्त करना, यह सुगम और सर्वोत्कृष्ट उपकारक तथा कल्याणस्वरूप है। निर्विकल्प.
७६८ श्रीवसो, आसोज सुदी ७, १९५४ *७-१२-५४
३२-११-२२ इस तरह काल व्यतीत होने देना योग्य नहीं । प्रत्येक समय आत्मोपयोगको उपकारी कर निवृत्ति होने देना उचित है।
अहो इस देहकी रचना! अहो चेतन ! अहो उसकी सामर्थ्य ! अहो ज्ञानी ! अहो उसकी गवेषणा! अहो उनका ध्यान ! अहो उनकी समाधि ! अहो उनका संयम ! अहो उनका अप्रमत्त भाव ! अहो उनकी परम जागृति ! अहो उनका वीतरागस्वभाव ! अहो उनका निरावरण ज्ञान ! अहो उनके योगकी शांति ! अहो वचन आदि योगका उदय !
हे आत्मन् ! यह सब तुझे सुप्रतीत हो गया, फिर अप्रमत्तभाव क्यों ! मंद प्रयत्न क्यों ? जघन्य-मंद जागृति क्यों: शिथिलता क्यों ! घबराहट क्यों ! अंतरायका हेतु क्या !
अप्रमत्त हो, अप्रमत्त हो। परम जाग्रत स्वभावको भज, परम जाग्रत स्वभावको भज |
*७-१२ ५४ अर्थात् ज्या दिन १२वों मास और ५४याँ साल-अर्थात् मासोज सुदी ७, संवत् १९५४ । तथा ३१-११-२२ अर्थात् ३१वाँ दिन ११वा मास और २२वाँ दिन अर्थात् आसोज सुदी ७, संवत् १९५४ के दिन भीमद् राजचन्द्र ३१ वर्ष ११ मास और २२ दिनके थे।
-अनुवादक.