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७८१, ७८२] . विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष
-भगवान् जिनने मुनियोंको आश्चर्यकारक निष्पापवृत्ति (आहारग्रहण) का उपदेश किया है। ( वह भी किसलिये !) केवल मोक्षसाधनके लिये-मुनिको जो देहकी आवश्यकता है उसके धारण करनेके लिये, (दूसरे अन्य किसी भी हेतुसे उसका उपदेश नहीं किया )।
अहो णिचं तवो कम्मं, सव्वजिणेहिं वणियं ।
जाय लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥ -सर्व जिन भगवंतोंने आश्चर्यकारक (अद्भुत उपकारभूत) तपकर्मको नित्य ही करनेके लिये उपदेश किया है । (वह इस तरह कि ) संयमके रक्षणके लिये सम्यक्वृत्तिसे एक समय आहार लेना चाहिये।
-दशवकालिकसूत्र. तथारूप असंग निर्मथपदके अभ्यासको सतत बढ़ाते रहना । प्रश्नव्याकरण दशवैकालिक और आत्मानुशासनको हालमें सम्पूर्ण लक्ष रखकर विचार करना। एक शास्त्रको सम्पूर्ण बाँच लेनेपर दूसरा विचारना।
वनक्षेत्र, द्वि. आसोज सुदी १, १९५१
७८१
ॐ नमः सर्व विकल्पोंका, तर्कका त्याग करके
मनका ।
वचनका
कायाका । जय करके
इन्द्रियकार जय करके
आहारका • निद्राका । निर्विकल्परूपसे अंतर्मुखवृत्ति करके आत्मध्यान करना चाहिये । मात्र निराबाध अनुभवस्वरूपमें लीनता होने देनी चाहिये। दूसरी कोई चिंतनान करनी चाहिये। जो जो तर्क आदि उठे, उन्हें दीर्घ कालतक न करते हुए शान्त कर देना चाहिये ।
७८२ आभ्यंतर भान अवधूत,
विदेहीवत,
जिनकल्पीवत,
सर्व परभाव और विभावसे व्यावृत्त, निजस्वभावके भानसहित, अवधूतवत् , विदेहवित् , जिनकल्पीवत् विचरते हुए पुरुष भगवान्के स्वरूपका ध्यान करते हैं।