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भीमद् राजवन्द्र [पत्र ८००,०१,०२ ८००
मोरबी, चैत्र वदी ७, १९५५ (१) विशेष हो सके तो अच्छा । ज्ञानियोंको सदाचरण भी प्रिय है। विकल्प करना योग्य नहीं।
(२) 'जातिस्मरण ' हो सकता है । पूर्वभव जाना जा सकता है । अवधिज्ञान है । (३) तिथि पालना चाहिये । (१) जैसेको तैसा मिलता है; जैसेको तैसा अच्छा लगता है ।
* चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती भोगी रे।
तिम भवि सहजगुणे होवे, उत्तम निमित्तसंजोगी रे ॥ (५) चरणावर्त हो चरमकरण तथा, भवपरिणति परिपाक रे। दोष टळे ने दृष्टि खुले अति भली, पापति प्रवचनवाक रे॥
८०१ मोरबी, चैत्र वदी ८, १९५५
(१) षड्दर्शनसमुच्चय और तत्त्वार्थसूत्रका अवलोकन करना । योगदृष्टिसमुच्चय (सज्झाय) को मुखाम कर विचारना योग्य है । ये दृष्टियाँ आत्मदशा-मापक (थर्मामीटर ) यंत्र हैं ।
(२) शास्त्रको जाल समझनेवाले भूल करते हैं । शास्त्र अर्थात् शास्ता पुरुषके वचन । इन वचनोंको समझनेके लिये दृष्टि सम्यक् चाहिये । ' मैं ज्ञान हूँ, मैं ब्रह्म हूँ, ' ऐसा मान लेनेसे, ऐसा चिल्लानेसे, तद्रूप नहीं हो जाते । तद्रूप होनेके लिये सत्शास्त्र आदिका सेवन करना चाहिये ।
(३) सदुपदेष्टाकी बहुत ज़रूरत है । सदुपदेष्टाकी बहुत ज़रूरत है।
(१) पाँचसौ-हज़ार श्लोक कंठस्थ कर लेनेसे पंडित नहीं बन जाते । फिर भी थोड़ा जानकर बहुतका ढोंग करनेवाले पंडितोंका टोटा नहीं है।
+(५) ऋतुको सन्निपात हुआ है।
८०२ मोरबी, चैत्र वदी ९ गुरु.१९५५ (१)
ॐ नमः (१) आत्महित अति दुर्लभ है-ऐसा जानकर विचारवान पुरुष उसकी अप्रमत्तभावसे उपासना करते हैं।
(२) आचारांगसूत्रके एक वाक्यके संबंधों चर्चापत्र आदि देखे हैं। बहुत करके थोरे दिनोंमें किसी सुज्ञकी तरफसे उसका समाधान प्रकट होगा । ॐ
* जैसे चकोर चंद्रमाको चाहता है, अमर मालतीको चाहता है, उसी तरह भन्यपुरुष उत्तम गुणों के संबोगकी इच्छा करते हैं।
xअर्यके लिये देखो अंक ७९५ । +संवत् १९५६ मै भयंकर दुष्काल पड़ा था।-अनुवादक,