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३२वाँ वर्ष ७८५ ॐ नमः
बम्बई, कार्तिक १९५५
संयम
(२) जाग्रतसत्ता. ज्ञायकसत्ता. आत्मस्वरूप.
सर्वज्ञोपदिष्ट आत्माको सद्गुरुकी कृपासे जानकर, निरंतर उसके ध्यानके लिये विचरना, संयम तपपूर्वकः
अहो ! सर्वोत्कृष्ट शांतरसमय सन्मार्गअहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांतरसप्रधान मार्गके मूल सर्वज्ञदेव-- अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांतरसकी जिसने सुप्रतीति कराई ऐसे परम कृपालु सद्गुरुदेव-- इस विश्व में सर्वकाल तुम जयवंत वत्तॊ, जयवंत व” ।
७८६ ईडर, मंगसिर सुदी १४ सोम. १९५५
ॐ नमः जैसे बने वैसे वीतरागश्रुतका विशेष अनुप्रेक्षण (चितवन ) करना चाहिये । प्रमाद परम रिपु है--यह वचन जिसे सम्यक् निश्चित हो गया है, वे पुरुष कृतकृत्य होनेतक निर्भयतासे आचरण करनेके स्वमकी भी इच्छा नहीं करते । राज्यचन्द्र.
७८७ ईडर, मंगसिर वदी ४ शनि. १९५५
ॐ नमः तुम्हें जो समाधानविशेषकी जिज्ञासा है, वह किसी निवृत्तियोगमें पूर्ण हो सकती है।
जिज्ञासाबल, विचारबल, वैराग्यबल, ध्यानबल और ज्ञानबल वर्धमान होनेके लिये, आत्मार्थी जीवको तथारूप ज्ञानीपुरुषके समागमकी विशेष करके उपासना करनी योग्य है ।
उसमें भी वर्तमानकालके जीवोंको उस बलकी हद छाप पड़नेके लिये अनेक अन्तराय देखनेमें आते हैं। इससे तथारूप शुद्ध जिज्ञासुवृत्तिसे दीर्घकालपर्यंत सत्समागमकी उपासना करनेकी आवश्यकता रहती है। सत्समागमके अभावमें वीतरागश्रुतकी परम शान्तरस-प्रतिपादक वीतरागवचनोंकी-अनुप्रेक्षाबारंबार करनी चाहिये। चित्तकी स्थिरताके लिये वह परम औषध है।