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७६९, ७७० ]
तीव्र वैराग्य, परम आर्जव, बाह्याभ्यंतर त्याग.
आहारका जय.
आसनका जय.
निद्राका जय.
योगका जय.
आरंभपरिग्रहविरति, ब्रह्मचर्यके प्रति निवास.
एकांतवास. अष्टांगयोग.
विविध पत्र आदि संग्रह - ३१वॉ वष
७६९
आत्मतत्त्वविचार. जगत्तत्त्वविचार. जिनदर्शन तत्त्वविचार. अन्यदर्शनतत्त्वविचार.
*७७०
जिनचैतन्यप्रतिमा. सर्वांगसंयम.
एकांत स्थिरसंयम..
एकांतशुद्धसंयम.
केवल बाह्यभावनिरपेक्षता.
समाधान.
सर्वज्ञध्या.
आत्मईहा.
आत्मोपयोग.
धर्मसुगमता. पद्धति.
मूल आत्मोपयोग. अप्रमत्त उपयोग.
केवल उपयोग. केवल आत्मा.
अचिन्त्य सिद्धस्वरूप.
यथास्थित शुद्ध सनातन सर्वोत्कृष्ट जयवंत धर्मका उदय.
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७२९
वृत्ति.
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* इस योजनाका उद्देश्य यह मालूम होता है कि " एकांतस्थिरसंयम, ' एकांतशुद्धसंयम और "केवल बाह्यभावनिरपेक्षता " पूर्वक " सर्वागसंयम प्राप्त कर, उसके द्वारा " जिनचैतन्यप्रतिमारूप ” होकर, अर्थात् अडोल आत्मावस्था पाकर, जगत्के जीवोंके कल्याणके लिये, अर्थात् मार्गके पुनरोद्धारके लिये प्रवृत्ति करना चाहिये। यहाँ जो “वृत्ति " " पद्धति " और " समाधान' शब्द आये हैं, सो उनमें प्रथम 'वृत्ति क्या है ?' इसके उत्तरमें कहा गया है कि " यथास्थित शुद्ध सनातन सर्वोत्कृष्ट जयवंत धर्मका उदय करना यह वृत्ति है । उसे ' किस पद्धति से करना चाहिये १' इसके उत्तरमें कहा गया है कि जिससे लोगोंको " धर्म-सुगमता हो और लोकानुग्रह भी हो" । इसके बाद ' इस वृत्ति और पद्धतिका परिणाम क्या होगा ? ' इसके 'समाधान' में कहा गया है कि " आत्मतत्वविचार, जगत्तस्वविचार; जिनदर्शन तत्त्वविचार और अन्यदर्शनतत्त्वविचार ” के संबंध में संसार के जीवोंका समाधान करना ।
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अंक ७७३ पृष्ठ ७३० (नीचे) जो कहा गया है कि " परानुग्रह परमकारुण्यवृत्ति करते हुए भी प्रथम चैतन्यजिनप्रतिमा हो, चैतन्यजिनप्रतिमा हो ” – इस वाक्यसे भी यह बात अधिक स्पष्ट होती है।
यहाँ यह स्पष्टीकरण भीमद् राजचन्द्रकी गुजराती आवृत्तिके संशोधक श्रीमनसुखभाई रवजीभाई मेहताके नोटके आधार लिखा गया है।
-अनुवादक.
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