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पत्र ४४७ गांधीजीके प्रभोंके उत्तर ] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
१. प्रश्न:-आत्मा क्या है ? क्या वह कुछ करती है ! और उसे कर्म दुःख देता है या नहीं ?
उत्तरः-(१) जैसे घट पट आदि जड़ वस्तुयें हैं, उसी तरह आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु है। घट पट आदि अनित्य हैं-त्रिकालमें एक ही स्वरूपसे स्थिरतापूर्वक रह सकनेवाले नहीं हैं । आत्मा एक स्वरूपसे त्रिकालमें स्थिर रह सकनेवाली नित्य पदार्थ है । जिस पदार्थकी उत्पत्ति किसी भी संयोगसे न हो सकती हो वह पदार्थ नित्य होता है । आत्मा किसी भी संयोगसे उत्पन्न हो सकती हो, ऐसा मालूम नहीं होता। क्योंकि जड़के चाहे कितने भी संयोग क्यों न करो तो भी उससे चेतनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। जो धर्म जिस पदार्थमें नहीं होता, उस प्रकारके बहुतसे पदार्थोके इकडे करनेसे भी उसमें जो धर्म नहीं है, वह धर्म उत्पन्न नहीं हो सकता, ऐसा सबको अनुभव हो सकता है। जो घट, पट आदि पदार्थ हैं, उनमें ज्ञानस्वरूप देखनेमें नहीं आता । उस प्रकारके पदार्थीका यदि परिणामांतर पूर्वक संयोग किया हो अथवा संयोग हुआ हो, तो भी वह उसी तरहकी जातिका होता है, अर्थात् वह जड़स्वरूप ही होता है, ज्ञानस्वरूप नहीं होता । तो फिर उस तरहके पदार्थके संयोग होनेपर आत्मा अथवा जिसे ज्ञानी-पुरुष मुख्य 'ज्ञानस्वरूप लक्षणयुक्त ' कहते हैं, उस प्रकारके (घट पट आदि, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश ) पदार्थसे किसी तरह उत्पन्न हो सकने योग्य नहीं । 'ज्ञानस्वरूपत्व': यह आत्माका मुख्य लक्षण है, और जड़का मुख्य लक्षण ' उसके अभावरूप, है। उन दोनोंका अनादि सहज स्वभाव है । ये, तथा इसी तरहके दूसरे हजारों प्रमाण आत्माको 'नित्य' प्रतिपादन कर सकते हैं। तथा उसका विशेष विचार करनेपर नित्यरूपसे सहजस्वरूप आत्मा अनुभवमें भी आती है। इस कारण सुख-दुःख आदि भोगनेवाले, उससे निवृत्त होनेवाले, विचार करनेवाले, प्रेरणा करनेवाले इत्यादि भाव जिसकी विद्यमानतासे अनुभवमें आते हैं, ऐसी वह आत्मा मुख्य चेतन (ज्ञान) लक्षणसे युक्त है । और उस भावसे (स्थितिसे)वह सब कालमें रह सकनेवाली 'नित्य पदार्थ' है। ऐसा माननेमें कोई भी दोष अथवा बाधा मालूम नहीं होती, बल्कि इससे सत्यके स्वीकार करनेरूप गुणकी ही प्राप्ति होती है ।
यह प्रश्न तथा तुम्हारे दूसरे बहुतसे प्रश्न इस तरह हैं कि जिनमें विशेष लिखने, कहने और समझानेकी आवश्यकता है। उन प्रश्नोंका उस प्रकारसे उत्तर लिखा जाना हालमें कठिन होनेसे प्रथम तुम्हें षट्दर्शनसमुच्चय ग्रंथ भेजा था, जिसके बाँचने और विचार करनेसे तुम्हें किसी भी अंशमें समाधान हो; और इस पत्रसे भी कुछ विशेष अंशमें समाधान हो सकना संभव है। क्योंकि इस संबंधमें अनेक प्रश्न उठ सकते हैं, जिनके फिर फिरसे समाधान होनेसे, विचार करनेसे समाधान होगा।
(२) ज्ञान दशामें-अपने स्वरूपमें यथार्थ बोधसे उत्पन्न हुई दशामें-वह आत्मा निज भावका अर्थात् ज्ञान, दर्शन (यथास्थित निश्चय ) और सहज-समाधि परिणामका कर्चा है। अज्ञान दशा क्रोध, मान, माया, लोम इत्यादि प्रकृतियोंका कर्ता है, और उस भावके फलका भोका. होनेसे प्रसंगवश घट पट आदि पदार्थीका निमित्तरूपसे कर्ता है । अर्थात् घट पट आदि पदार्थाका मूल द्रव्योंका वह कर्चा नहीं, परन्तु उसे किसी आकारमें लानेरूप क्रियाका ही कर्ता है। यह जो पीछे दशा कही है, जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है, वेदान्तदर्शन उसे भ्रांति' कहता है, और दूसरे