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उपदेश-छायां नहीं चाहिये-कायर होना नहीं चाहिये-कायर हो जाय तो आत्मा ऊंची नहीं जाती । ज्ञानका अभ्यास जिस तरह बने बढ़ाना चाहिये-अभ्यास रखना चाहिये-उसमें कुटिलता अथवा अहंकार नहीं रखना चाहिये।
__ आत्मा अनंत ज्ञानमय है । जितना अभ्यास बढ़े उतना ही कम है । सुंदरविलास आदिके पढ़नेका अभ्यास रखना चाहिये । गच्छकी अथवा मतमतांतरकी पुस्तकें हाथमें नहीं लेना । परम्परासे भी कदाग्रह आ जाय तो जीव पीछेसे मारा जाता है। इसलिये कदाग्रहकी बातोंमें नहीं पड़ना । मतोंसे अलग रहना चाहिये-दूर रहना चाहिये । जिस पुस्तकसे वैराग्य-उपशम हो, वे समकितदृष्टिकी पुस्तकें हैं । वैराग्यकी पुस्तकें पढ़ना चाहिये। .
दया सत्य आदि जो साधन हैं, वे विभावको त्याग करनेके साधन हैं । अंतस्पर्शसे विचारको बड़ा आश्रय मिलता है । अबतकके साधन विभावके आधार-स्तंभ थे; उन्हें सच्चे साधनोंसे ज्ञानी-पुरुष हिला डालते हैं। जिसे कल्याण करना हो उसे सत्य-साधन अवश्य करना चाहिये ।।
__ सत्समागममें जीव आया और इन्द्रियोंकी लुब्धता न गई, तो वह सत्समागममें आया ही नहीं, ऐसा समझना चाहिये । जबतक सत्य बोले नहीं तबतक गुण प्रगट नहीं होते । सत्पुरुष हाथसे पकड़कर व्रत दे तो लो। ज्ञानी-पुरुष परमार्थका ही उपदेश देता है । मुमुक्षुओंको सत्साधनोंका सेवन करना योग्य है।
समकितके मूल बारह व्रत हैं:-स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद; स्थूल कहनेका हेतु०
ज्ञानीने आत्माका और ही मार्ग समझाया है। व्रत दो प्रकारके हैं:-समकितके बिना बाह्य व्रत है। और समकितसहित अंतर्बत है। समकितसहित बारह व्रतोंका परमार्थ समझमें आ जाय तो फल होता है।
बाह्यव्रत अंततके लिये है। जैसे कि एकका अंक सिखानेके लिये लकीरें बनाई जाती हैं । यद्यपि प्रथम तो लकीरें करते हुए एकका अंक टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है, परन्तु इस तरह करते करते पीछेसे वह अंक ठीक ठीक बनने लगता है। .
जीवने जो जो कुछ श्रवण किया है, वह सब मिथ्या ही ग्रहण किया है। ज्ञानी विचारा क्या करे! कितना समझावे ! वह समझानेकी रीतिसे ही तो समझाता है। मार कूटकर समझानेसे तो आत्मज्ञान होता नहीं । पहिले जो जो व्रत आदि किये वे सब निष्फल ही गये, इसलिये अब सत्पुरुषकी दृष्टिसे परमार्थ समझकर करो । एक ही व्रत हो, परन्तु वह मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे बंध है, और सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षासे निर्जरा है। पूर्वमें जो व्रत आदि निष्फल गये, उन्हें अब सफल करने योग्य सत्पुरुषका योग मिला है। इसलिये पुरुषार्थ करना चाहिये । सदाचरणका आश्रयसहित सेवन करना चाहिये-मरण आनेपर पीछे हटना नहीं चाहिये । ज्ञानीके वचन श्रवण होते नहीं-मनन होते नहीं, नहीं तो दशा बदले बिना कैसे रह सकती है ! - आरंभ-परिग्रहको न्यून करना चाहिये । पढ़नेमें चित्त न लगे तो उसका कारण नीरसता मालूम होती है। जैसे कोई आदमी नीरस आहार कर ले तो फिर उसे पीछेसे भोजन अच्छा नहीं लगता। : बानियोंने जो कहा है, उससे जीव विपरीत ही चलता है; फिर सत्पुरुषकी वाणी कहाँसे लग सकती है । लोक-लाज आदि शल्य हैं । इस शल्यके कारण जीवका पानी चमकता नहीं । उस शल्यपर