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मात्मसिरि यदि किसी भी प्रकारसे आत्माको कर्मका कर्तृत्व न हो तो वह किसी भी प्रकारले उसका भोक्ता भी नही हो सकती; और यदि ऐसा हो तो फिर उसे किसी भी तरहके दुःखोंकी संभावना भी न माननी चाहिये । तथा यदि आत्माको किसी भी तरहके दुःखोंकी बिलकुल भी संभावना न हो तो फिर वेदान्त आदि शाम सर्व दुःखोसे छूटनेके जिस मार्गका उपदेश करते है, उसका वे किसलिये उपदेश देते हैं ! वेदान्त आदि दर्शन कहते हैं कि 'जबतक आत्मज्ञान न हो तबतक दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं होती'-सो यदि दुःखका ही सर्वथा अभाव हो तो फिर उसकी निवृतिका उपाय भी क्यों करना चाहिये ! तथा यदि आत्मामें कोका कर्तृत्व न हो तो उसे दुःखका भोक्तृत्व भी कहाँसे हो सकता है ! यह विचार करनेसे आत्माको कर्मका कर्तृत्व सिद्ध होता है।
प्रश्न:-अब यहाँ एक प्रश्न हो सकता है और तुमने भी वह प्रश्न किया है कि यदि आमाको कर्मकी कर्ता मानें तो वह आत्माका धर्म ठहरता है; और जो जिसका धर्म होता है, उसका कभी भी उच्छेद नहीं हो सकता, अर्थात् वह उससे सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता । जैसे अनिकी उष्णता और उसका प्रकाश उससे मिन्न नहीं हो सकते; इसी तरह यदि कर्मका कर्तृत्व आत्माका धर्म सिद्ध हो तो उसका नाश भी नहीं हो सकता।'
उत्तरः-सर्व प्रमाणांशके स्वीकार किये बिना ही यह बात सिद्ध हो सकती है, परन्तु जो विचारवान होता है वह किसी एक प्रमाणांशको स्वीकार करके दूसरे प्रमाणांशका उच्छेद नहीं करता। ' उस जीवको कर्मका कर्तृत्व नहीं होता' और 'यदि हो तो उसकी प्रतीति नहीं हो सकती' इत्यादि प्रश्नोंके उत्तरमें जीवको कर्मका कर्ता सिद्ध किया गया है। परन्तु आत्मा यदि कर्मकी कर्ता हो तो उस कर्मका नाश ही न हो—यह कोई सिद्धांत नहीं है। क्योंकि ग्रहण की हुई वस्तुसे ग्रहण करनेवाली वस्तुकी सर्वथा एकता कैसे हो सकती है ! इस कारण जीव यदि अपनेसे ग्रहण किये गये द्रव्य-कर्मका त्याग करे तो वह हो सकना संभव है। क्योंकि वह उसका सहकारी स्वभाव ही है-सहज स्वभाव नहीं । तथा उस कर्मको मैंने तुम्हें अनादिका भ्रम कहा है। अर्थात् उस कर्मका कापन जीवको अज्ञानसे ही प्रतिपादित किया है। इस कारण भी वह कर्म निवृत्त हो सकता है-यह बात साथमें समझनी चाहिये । जो जो भ्रम होता है, वह सब वस्तुकी उलटी स्थितिकी मान्यतारूप ही होता है, और इस कारण वह निवृत्त किया जा सकता है। जैसे मृगजलमेंसे जलबुद्धि ।
कहनेका अभिप्राय यह है कि यदि अज्ञानसे भी आत्माको कापना न हो, तो फिर कुछ भी उपदेश आदिका श्रवण विचार और ज्ञान आदिके समझनेका कोई भी हेतु नहीं रहता। अब यहाँ जीवका परमार्थसे जो कर्यापन है, उसे कहते हैं
चेतन जो निजमानमा, कर्ता आपस्वभाव ।
वर्षे नहीं निजभानमा, कर्ण कर्मप्रभाव ॥७८॥ मात्मा यदि अपने शुद्ध चैतन्य गादि स्वभावमें रहे तो वह अपने उसी स्वभावकी का है, अर्थात् वह उसी स्वरूपमें स्थित रहती और यदि वह शुद्ध चैतन्य आदि स्वभावके भाममें न रहती हो, तो यह कर्ममाक्की का है।