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श्रीमद् राजचन्द्र
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इस जगत्में प्राणीमात्रकी व्यक्त अथवा अव्यक्त इच्छा भी यही है कि मुझे किसी भी तरहसे दुःख न हो और सर्वथा सुख ही सुख हो; और उनका प्रयत्न भी इसीलिये है। फिर भी वह दुःख क्यों दूर नहीं होता ! इस तरहके प्रश्न बड़े बड़े विचारवान जीवोंको भी भूतकालमें हुए थे, वर्तमानकालमें भी होते हैं और भविष्यकालमें भी होंगे । तथा उन अनंतानंत विचारवानोंमेंसे अनंत विचारवानोंको तो उसका यथार्थ समाधान भी हुआ है और वे दुःखसे मुक्त हो गये हैं । वर्तमानकालमें भी जिन विचारवानोंको उसका यथार्थ समाधान होता है, वे भी तथारूप फलको प्राप्त करते हैं, और भविष्यकालमें भी जिन जिन विचारवानोंको यथार्थ समाधान होगा वे सब तथारूप फलको पावेंगे, इसमें संशय नहीं है।
शरीरका दुःख यदि केवल औषध करनेसे ही दूर हो जाता, मनका दुःख यदि धन आदिके मिलनेसे ही भाग जाता, और बाह्य संसर्गसंबंधी दुःख यदि मनको कुछ भी असर पैदा न कर सकता, तो दुःखके दूर करनेके लिये जो जो प्रयत्न किये जाते हैं वे सब, सभी जीवोंको सफल हो जाते । परन्तु जब यह होना संभव दिखाई न दिया, तभी विचारवानोंको प्रश्न उठा कि दुःखके दूर होनेके लिये कोई दूसरा ही उपाय होना चाहिये । तथा यह जो कुछ उपाय किया जाता है वह अयथार्थ है, और यह सम्पूर्ण श्रम वृथा है, इसलिये उस दुःखका यदि यथार्थ मूल कारण जान लिया जाय और तदनुसार उपाय किया जाय तो ही दुःख दूर होना संभव है, नहीं तो वह कभी भी दूर नहीं हो सकता ।।
जो विचारवान दुःखके यथार्थ मूल कारणको विचार करनेके लिये उत्कंठित हुए हैं, उनमें भी किसी किसीको ही उसका यथार्थ समाधान हुआ है, और बहुतसे तो यथार्थ समाधान न होनेपर भी मति-व्यामोह आदि कारणोंसे ऐसा मानने लगे हैं कि हमें यथार्थ समाधान हो गया है, और वे तदनुसार उपदेश भी करने लगे हैं, तथा अनेक लोग उनका अनुसरण भी करने लगे हैं। जगत्में भिन्न भिन्न जो धर्म-मत देखनेमें आते हैं, उनकी उत्पत्तिका मुख्य कारण यही है।।
विचारवानोंकी विशेषतः यही मान्यता है कि धर्मसे दुःख मिट जाता है। परन्तु धर्मके स्वरूप समझनेमें तो एक दूसरेमें बहुत अन्तर पड़ गया है । बहुतसे तो अपने मूल विषयको ही भूल गये हैं, और बहुतसोंने उस विषयमें अपनी बुद्धिके थक जानेसे अनेक प्रकारसे नास्तिक आदि परिणाम बना लिये हैं। - दुःखके मूल कारण और उनकी किस किस तरह प्रवृत्ति हुई, इसके संबंधमें यहाँ थोडेसे मुख्य अभिप्रायोको संक्षेपमें कहा जाता है।
दुःख क्या है ? उसके मूल कारण क्या हैं ! और वह दुःख किस तरह दूर हो सकता है। उसके संबंध में जिनभगवान् वीतरागने अपना जो मत प्रदर्शित किया है, उसे यहाँ संक्षेपसे कहते हैं:
अब, वह यथार्थ है या नहीं, उसका अवलोकन करते हैं: