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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ७५१,७५२,७५३
. ९. श्रीजिनका अभिमत है कि प्रत्येक द्रव्य अनंत पर्यायोंसे युक्त है । जीवकी अनंत पर्याय हैं । परमाणुकी भी अनंत पर्याय हैं। जीवके चेतन होनेके कारण उसकी पर्याय भी चेतन हैं,
और परमाणुके अचेतन होनेसे उसकी पर्याय भी अचेतन हैं । जीवकी पर्याय अचेतन नहीं, और परमाणुकी पर्याय सचेतन नहीं ऐसा श्रीजिनने निश्चय किया है; तथा वैसा ही योग्य भी है। क्योंकि प्रत्यक्ष पदार्थका स्वरूप भी विचार करनेसे वैसा ही प्रतीत होता है।
७५१ ववाणीआ, माघ वदी ४ गुरु. १९५४ इस जीवको उत्तापनाका मूल हेतु क्या है, तथा उसकी निवृत्ति क्यों नहीं होती, और वह निवृत्ति किस तरह हो सकती है ! इस प्रश्नका विशेषरूपसे विचार करना योग्य है-अंतरमें उतरकर विचार करना योग्य है।
जबतक इस क्षेत्रमें रहना हो तबतक चित्तको अधिक दृढ़ बनाकर प्रवृत्ति करना चाहिये ।
७५२ मोरबी, माघ वदी १५, १९५४ जिस तरह मुमुक्षुवृत्ति दृढ़ बने उस तरह करो। हार जाने अथवा निराश होनेका कोई कारण नहीं है । जब जीवको दुर्लभ योग ही मिल गया तो फिर थोड़ेसे प्रमादके छोड़ देनेमें उसे घबड़ाने जैसी अथवा निराश होने जैसी कुछ भी बात नहीं है ।
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* व्याख्यानसार. १. प्रथम गुणस्थानकमें जो ग्रंथि है उसका भेदन किये बिना, आत्मा आगेके गुणस्थानको नहीं जा सकती । कभी योगानुयोगके मिलनेसे जीव अकामनिर्जरा करता हुआ आगे बढ़ता है, और ग्रंथिभेद करनेके पास आता है। परन्तु यहाँ ग्रंथिकी इतनी अधिक प्रबलता है कि जीव यह ग्रंथिभेद करनेमें शिथिल होकर-असमर्थ हो जानेके कारण वापिस लौट आता है । वह हिम्मत करके आगे बढ़ना चाहता है, परन्तु मोहनीयके कारण विपरीतार्थ समझमें आनेसे, वह ऐसा समझता है कि वह स्वयं ग्रंथिभेद कर रहा है, किन्तु उल्टा वह उस तरह समझनेरूप मोहके कारण ग्रंथिकी निविड़ता ही करता है। उसमेंसे कोई जीव ही योगानुयोग प्राप्त होनेपर अकामनिर्जरा करते हुए, अति बलवान होकर, उस ग्रंथिको शिथिल करके अथवा बलहीन करके आगे बढ़ता है । यह अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथा गुणस्थानक है । यहाँ मोक्षमार्गकी सुप्रतीति होती है । इसका दूसरा नाम बोधबीज भी है । यहाँ आत्माके अनुभवकी शुरुआत होती है, अर्थात मोक्ष होनेके बीजका यहाँ रोपण होता है। .
२. इस बोधबीज गुणस्थानक ( चौथा गुणस्थानक ) से तेरहवें गुणस्थानकतक आत्मानुभव
* भीमद् राजचन्द्रने ये व्याख्यान संवत् १९५४ में माघ महीनेसे चैत्र महीनेवक, तथा संवत् १९५५में मोरवीमें दिये थे । यह व्याख्यानसार एक मुमुक्षुकी स्मृतिके ऊपरसे यहाँ दिया गया है। इस सारको इस मुमुक्षु माईने मित्र मिन स्थानोंपर अव्यस्थितरूपसे लिख लिया था। यह उसीका संग्रह है।
-अनुवादक.