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श्रीमद् राजचन्द्र
[७५३ व्याख्यानमार अर्थमें विरोध आता है । इस कारण यह सिद्ध होता है कि वहाँ बुद्धिबलसे ही सब पदार्थीका, सब प्रकारसे, सब कालका ज्ञान होता है।
२५. एक कालके कल्पित जो अनंत समय हैं, उनके कारण अनंतकाल कहा जाता है । तथा उसमेंके वर्तमानकालके पहिलेके जो समय व्यतीत हो गये हैं, वे फिरसे लौटकर आनेवाले नहीं यह बात न्याययुक्त है। फिर वह समय अनुभवगम्य किस तरह हो सकता है ? यह विचारणीय है।
२६. अनुभवगम्य जो समय हो गये हैं उनका जो स्वरूप है, उस स्वरूपको छोड़कर उनका कोई दूसरा स्वरूप नहीं होता; और इसी तरह अनादि अनंतकालके जो दूसरे समय हैं उनका भी वैसा ही स्वरूप है—यह बुद्धिबलसे निर्णीत हुआ मालूम होता है।
२७. इस कालमें ज्ञान क्षीण हो गया है, और ज्ञानके क्षीण हो जानेसे अनेक मतभेद हो गये हैं । ज्यों ज्यों ज्ञान कम होता है त्यों त्यों मतभेद बढ़ते हैं, और ज्यों ज्यों ज्ञान बढ़ता है त्यों त्यों मतभेद कम होते हैं । उदाहरणके लिये, ज्यों ज्यों पैसा घटता है त्यों त्यों क्लेश बढ़ता है, और जहाँ पैसा बढ़ा कि क्लेश कम हो जाता है।
२८. ज्ञानके बिना सम्यक्त्वका विचार नहीं सूझता । ' मतभेद मुझे उत्पन्न नहीं करना है,' यह बात जिसके मनमें है, वह जो कुछ बांचता और सुनता है वह सब उसको फलदायक ही होता है। मतभेद आदिके कारणको लेकर शास्त्र-श्रवण आदि फलदायक नहीं होते।
२९. जैसे रास्तेमें चलते हुए किसी आदमीके सिरकी पगड़ी काँटोंमें उलझ जाय, और उसकी मुसाफिरी अभी बाकी रही हो; तो पहिले तो जहाँतक बने उसे काँटोंको हटाना चाहिये; किन्तु यदि काँटोंको दूर करना संभव न हो तो उसके लिये वहाँ ठहरकर, रातभर वहीं न बिता देनी चाहिये; परन्तु पगडीको वहीं छोड़कर आगे बढ़ना चाहिये । उसी तरह जिनमार्गके स्वरूप और उसके रहस्यको समझे बिना अथवा उसका विचार किये बिना छोटी छोटी शंकाओंके लिये वहीं बैठ जाना और आगे न बढ़ना उचित नहीं । जिनमार्ग वास्तविक रीतिसे देखनेसे तो जीवको कर्मोंके क्षय करनेका उपाय है, परन्तु जीव तो अपने मतमें गुंथा हुआ है।
३०. जीव प्रथम गुणस्थानसे निकलकर ग्रंथिभेद होनेतक अनंतबार आया, और वहाँसे पीछे फिर गया है।
३१. जीवको ऐसा भाव रहता है कि सम्यक्त्व अनायास ही आ जाता होगा, परन्तु वह तो प्रयास (पुरुषार्थ) किये बिना प्राप्त नहीं होता ।
३२. कर्म प्रकृति १५८ हैं। सम्यक्त्वके आये बिना उनमेंसे कोई भी प्रकृति समूल क्षय नहीं होती । जीव अनादिसे निर्जरा करता है, परन्तु मूलमेंसे तो एक भी प्रकृति क्षय नहीं होती ! सम्यक्त्वमें ऐसी सामर्थ्य है कि वह प्रकृतिको मूलसे ही क्षय कर देता है । वह इस तरह कि वह अमुक प्रकृतिके क्षय होनेके पश्चात् आता है; और जीव यदि बलवान होता है तो वह धीरे धीरे सब प्रकृतियोंका क्षय कर देता है। . ३३. सम्यक्त्व सबको मालूम हो जाय, यह बात नहीं है। इसी तरह वह किसीको भी मालूम न पड़े, यह बात भी नहीं। विचारवानको वह मालूम पड़ जाता है।