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पत्र ७६१, ७६२, ७६३] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष
६. जिस तरह आकाशमें विश्वका प्रवेश नहीं-आकाश सर्व भावोंकी वासनासे रहित ही है, उसी तरह सम्यग्दृष्टि पुरुषोंने, सर्व द्रव्योंसे भिन्न, सर्व अन्य पर्यायोंसे रहित ही आत्माको प्रत्यक्ष देखा है।
७. जिसकी उत्पत्ति अन्य किसी भी द्रन्यसे नहीं होती, उस आत्माका नाश भी कहाँसे हो सकता है !
८. अज्ञानसे और निजस्वरूपके प्रति प्रमादसे, आत्माको केवल मृत्युकी भ्रांति ही है। उस भ्रान्तिको निवृत्त कर, शुद्धचैतन्य निजअनुभव-प्रमाणस्वरूपमें परम जाग्रत होकर, ज्ञानी सदा ही निर्भय रहता है। इसी स्वरूपके लक्षसे सब जीवोंके प्रति साम्यभाव उत्पन्न होता है, और सर्व परदन्योंसे वृत्तिको व्यावृत्त कर, आत्मा केशरहित समाधिको पाती है।
. ९. परमसुखस्वरूप, परमोत्कृष्ट शांत, शुद्धचैतन्यस्वरूप समाधिको जिसने सर्व कालके लिये प्राप्त किया, उन भगवान्को नमस्कार हो ! उस पदमें निरंतर लक्षरूप जिनका प्रवाह है, उन सत्पुरुषोंको नमस्कार हो।
१०. सबसे सब प्रकारसे मैं भिन्न हूँ, मैं एक केवल शुद्धचैतन्यस्वरूप, परमोत्कृष्ट अचिन्त्यमुखस्वरूप, मात्र एकांत शुद्धअनुभवरूप हूँ। फिर वहाँ विक्षेप क्या ! विकल्प क्या ! भय क्या ! खेद क्या ! दूसरी अवस्था क्या ? मैं शुद्ध शुद्ध प्रकृष्ट शुद्ध परमशान्त चैतन्य हूँ; मैं मात्र निर्विकल्प हूँ, निजस्वरूपमय उपयोग करता हूँ, तन्मय होता हूँ। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
७६१ ववाणीआ, ज्येष्ठ सुदी ६ गुरु. १९५४ महान् गुणनिष्ठ स्थविर आर्य श्रीडूंगर ज्येष्ठ सुदी ३ सोमवारकी रात्रिको नौ बजे समाधिसहित देह-मुक्त हो गये।
७६२ बम्बई, ज्येष्ठ वदी ४ बुध. १९५४
ॐ नमः जिससे मनकी वृत्ति शुद्ध और स्थिर हो, ऐसे सत्समागमका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है । तथा उसमें भी यह दुःषमकाल होनेसे जीवको उसका विशेष अन्तराय है । जिस जीवको प्रत्यक्ष सत्समागमका विशेष लाभ प्राप्त हो वह महत्पुण्यवान है । सत्समागमके वियोगमें सत्शास्त्रका सदाचारपूर्वक परिचय अवश्य करना चाहिये।
७६३ बम्बई, ज्येष्ठ वदी १४ शनि. १९५४
नमो वीतरागाय. मुनियोंके समागममें ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करनेके संबंधमें यथासुख प्रवृत्ति करना, प्रतिबंध नहीं । मुनियोंको जिनस्मरण पहुँचे।