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७२४ श्रीमद् राजचन्द्र
[७५९, ७६० ७५९
ववाणीआ, ज्येष्ठ १९५४ १. देहसे भिन्न स्वपरप्रकाशक परम ज्योतिस्वरूप ऐसी इस आत्मामें निमग्न होओ।
हे आर्यजनो ! अंतर्मुख होकर, स्थिर होकर, उस आत्मामें ही रहो, तो अनंत अपार आनन्दका अनुभव करोगे।
२. सर्व जगत्के जीव कुछ न कुछ पाकर सुख पानेकी ही इच्छा करते हैं । महान् चावर्ती राजा भी बढ़ते हुए वैभव और परिग्रहके संकल्पमें प्रयत्नशील रहते हैं। और वे उसके प्राप्त करनेमें ही सुख समझते हैं । परन्तु अहो । ज्ञानियोंने तो उससे विपरीत ही सुखका मार्ग निर्णय किया है, कि किंचित् मात्र भी ग्रहण करना यही सुखका नाश है।
३. विषयसे जिसकी इन्द्रियाँ आर्त हैं, उसे शीतल आत्मसुख-आत्मत्व-कहाँसे प्रतीतिमें आ सकता है !
१. परमधर्मरूप चन्द्रके प्रति राहु जैसे परिग्रहसे अब मैं विरक्ति लेनेकी ही इच्छा करता हूँ। हमें परिग्रहका क्या करना है। हमें उसका कुछ भी प्रयोजन नहीं ।
५. 'जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि है वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि है ' हे आर्यजनो! तुम इस परम वाक्यका आत्मरूपसे अनुभव करो।।
७६० ववाणीआ, ज्येष्ठ सुदी १ शनि. १९५४. १. सर्व द्रव्यसे, सर्व क्षेत्रसे, सर्व कालसे और सर्व भावसे जो सर्व प्रकारसे अप्रतिबद्ध होकर निजस्वरूपमें स्थित हो गये, उन परम पुरुषोंको नमस्कार हो!
२. जिसे कुछ प्रिय नहीं, जिसे कुछ अप्रिय नहीं; जिसका कोई शत्रु नहीं; जिसका कोई मित्र नहीं; जिसने मान, अपमान, लाभ, अलाभ, हर्ष शोक, जन्म, मृत्यु आदिके द्वंद्वका अभाव कर, शुद्ध चैतन्यस्वरूपमें स्थिति पाई है, पाता है और पावेगा, उसका अति उत्कृष्ट पराक्रम आनन्दसहित आश्चर्य उत्पन्न करता है।
३. देहके प्रति जैसा वस्त्रका संबंध है, वैसा ही आत्माके प्रति जिसने देहके संबंधको याथातथ्य देखा है; जैसे म्यानके प्रति तलवारका संबंध है, वैसा ही देहके प्रति जिसने आत्माके संबंधको देखा है; तथा जिसने आत्माको अबद्ध-स्पष्ट-अनुभव किया है, उन महान् पुरुषोंको जीवन और मरण दोनों समान हैं।
१. जो अचिन्त्य द्रव्यकी शुद्धचितिस्वरूप कांति, परम प्रगट होकर उसे अचिन्त्य करती है,. वह अचिन्त्य द्रव्य सहज स्वाभाविक निजस्वरूप है, ऐसा निश्चय जिस परम कृपालु सत्पुरुषने प्रकाशित किया, उसका अपार उपकार है। .
५. चन्द्र भूमिका प्रकाश करता है-उसकी किरणोंकी कांतिके प्रभावसे समस्त भूमि श्वेतः हो जाती है। परन्तु चन्द्र कभी भी भूमिरूप नहीं होता। इसी तरह समस्त विश्वकी प्रकाशकः आत्मा कभी भी विश्वरूप नहीं होती, वह सदा सर्वदा-चैतन्यरूप ही रहती है। विश्वमें जीव जो अभेदबुद्धि मानता है, यही भ्रान्ति है।