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श्रीमद् राजबन्द्र [पत्र ७५३ ( ३ ), ७५४ साता-असाता, जीवन-मृत्यु, सुगंध-दुर्गध, सुस्वर-दुस्वर, रूप-कुरूप, शीत-उष्ण आदिमें हर्षशोक, रति-अरति, इष्टानिष्टबुद्धि और आर्तध्यान न रहना ही समदर्शिता है।.. __समदर्शीमें हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रहका त्याग अवश्य होता है । यदि अहिंसादि ब्रत न हों तो समदर्शिता संभव नहीं । समदर्शिता और अहिंसादि व्रतोंका कार्यकारण, अविनाभावी और अन्योन्याश्रयसंबंध है । यदि एक न हो तो दूसरा नहीं होता, और यदि दूसरा न हो तो पहिला नहीं होता।
समदर्शिता हो तो अहिंसा आदि व्रत होते हैं। समदर्शिता न हो तो अहिंसा आदि व्रत नहीं होते। अहिंसा आदि व्रत न हों तो समदर्शिता नहीं होती।
अहिंसा आदि व्रत हों तो समदर्शिता होती है। जितने अंशमें समदर्शिता होती है, उतने ही अंशमें अहिंसा आदि व्रत होते हैं, और जितने अंशोंमें अहिंसा आदि व्रत होते हैं, उतने ही अंशमें समदर्शिता होती है।
सद्गुरुयोग्य लक्षणरूप समदर्शिता तो मुख्यतया सर्वविरति गुणस्थानकमें होती है । बादके गुणस्थानकोंमें वह उत्तरोत्तर वर्धमान होती जाती है—विशेष प्रगट होती जाती है । तथा क्षीणमोह गुणस्थानमें उसकी पराकाष्ठा, और बादमें सम्पूर्ण वीतरागता होती है।
समदर्शिताका अर्थ लौकिकभावमें समानभाव, अभेदभाव, एकसमान बुद्धि और निर्विशेषपना नहीं है। अर्थात् काँच और हीरे दोनोंको एकसा समझना, अथवा सश्रुत और असत्श्रुतमें समानभाव मानना, अथवा सद्धर्म और असद्धर्ममें अभेद समझना, अथवा सद्गुरु और असद्गुरुमें एकसी बुद्धि रखना, अथवा सदेव और असद्देवमें निर्विशेषभाव दिखाना-अर्थात् दोनोंको एकसमान समझना इत्यादि समानवृत्तिको समदर्शिता नहीं कहते; यह तो आत्माकी मूदता, विवेकशून्यता, और विवेकविकलता है। समदर्शी सत्को सत् जानता है, सत्का बोध करता है; असत्को असत् जानता है, असत्का निषेध करता है। सत्श्रुतको सत्श्रुत समझता है, उसका बोध करता है; कुश्रुतको कुश्रुत जानता है, उसका निषेध करता है। सद्धर्मको सद्धर्म जानता है, उसका बोध करता है; असद्धर्मको असद्धर्म जानता है, उसका निषेध करता है; सद्गुरुको सद्गुरु समझता है, उसका बोध करता है; असद्गुरुको असद्गुरु समझता है, उसका निषेध करता है। सदेवको सदेव समझता है, उसका बोध करता है; असदेवको असदेव समझता है, उसका निषेध करता है—इत्यादि जो जैसा होता है, जो उसे वैसा ही देखता है, जानता है, उसका प्ररूपण करता है, और उसमें राग-द्वेष इष्टानिष्टबुद्धि नहीं करता, उसे समदर्शी समझना चाहिये । ॐ.
७५४ मोरबी, चैत्र वदी १२ रवि. १९५४ (१) कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार शास्त्र आदिसे अंततक विचारने योग्य हैं।
(२) दुषमकालका प्रबल राज्य विद्यमान है। तो भी अडग निश्चयसे सत्पुरुषकी बाझामें वृत्ति लगाकर, जो पुरुष अगुप्त वीर्यसे सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्रकी उपासना करना चाहते हैं, उन्हें परमशांतिका मार्ग अभी भी प्राप्त हो सकता है।