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७१३ भीमद् राजचन्द्र
[७५३ म्याख्यानसार १५१. मतभेद अथवा रूदि आदि निर्जीव बातें हैं, अर्थात् उनमें मोक्ष नहीं है । इसलिये सच्चे प्रकारसे सत्यकी प्रतीति करनेकी आवश्यकता है।
१५२. शुभाशुभ और शुद्धाशुद्ध परिणामोंके ऊपर समस्त आधार रहता है। छोटी छोटी बातोंमें भी यदि दोष माना जाय तो वहाँ मोक्ष नही होती । लोक-रूढ़ि अथवा लोक-व्यवहारमें पड़ा हुआ जीव जो मोक्षतत्त्वका रहस्य नहीं जान सकता, उसका कारण यही है कि उसमें रूढिका अथवा लोकसंज्ञाका माहात्म्य मौजूद है। इससे बादर क्रियाका निषेध नहीं किया जाता । जो जीव कुछ भी न करते हुए एकदम अनर्थ ही अनर्थ किया करता है उसके लिये बादर क्रिया उपयोगी है । तो भी उससे यह कहनेका भी अभिप्राय नहीं है कि बादर क्रियासे आगे न बढ़ना चाहिये।
१५३. जीवको अपनी चतुराई और मरजीके अनुसार चलना मनको प्रिय लगता है, परन्तु वह जीवका बुरा करनेवाली वस्तु है । इस दोषके दूर करनेके लिये ज्ञानीका उपदेश है कि प्रथम किसीको उपदेश नहीं देना चाहिये, परन्तु पहिले तो स्वयं ही उपदेश लेनेकी ज़रूरत है । जिसमें राग-द्वेष न हों, उसका संग हुए बिना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकता । सम्यक्त्व प्राप्त होनेसे जीव बदल जाता है—जीवकी दशा बदल जाती है; अर्थात् वह प्रतिकूल हो तो अनुकूल हो जाती है। जिनभगवान्की प्रतिमा (शांतभावके लिये ) का दर्शन करनेसे सातवें गुणस्थानकमें रहनेवाली ज्ञानीकी जो शांतदशा है, उसकी प्रतीति होती है।
१५४. जैनमार्गमें वर्तमानमें अनेक गच्छ प्रचलित हैं । उदाहरणके लिये तपगच्छ, अंचलगच्छ, लुकागच्छ, खरतरगच्छ इत्यादि । ये प्रत्येक गच्छ अपनेसे भिन्न पक्षवालेको मिथ्यात्वी समझते हैं । इसी तरह दूसरे छहकोटि आठकोटि इत्यादि जो विभाग हैं, वे सब अपनेसे भिन्न कोटिवालेको मिथ्यात्वी मानते हैं । वास्तवमें देखा जाय तो नौकोटि चाहिये । उसमेंसे जितनी कम हों उतना ही कम समझना चाहिये, और यदि उससे भी आगे जाय तो समझमें आता है कि नौकोटिके भी छोडे बिना रास्ता नहीं है।
१५५. तीर्थकर आदिने जो मार्ग प्राप्त किया वह मार्ग पामर नहीं है । रूढीका थोड़ा भी छोड़ देना यह अत्यंत कठिन लगता है, तो फिर जीव महान् और महाभारत मोक्षमार्गको किस तरह ग्रहण कर सकेगा! यह विचारणीय है।
१५६. मिथ्यात्व प्रकृतिके क्षय किये बिना सम्यक्त्व नहीं आता। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय उसकी दशा अद्भुत रहता है । वहाँसे ५, ६, ७ और ८ वें में जाकर दो घड़ीमें मोक्ष हो सकती है। एक सम्यक्त्वके प्राप्त कर लेनेसे कैसा अद्भुत कार्य बन जाता है। इससे सम्यक्त्वकी चमत्कृति अथवा उसका माहात्म्य किसी अंशमें समझमें आ सकता है।
१५७. दुर्धर पुरुषार्थसे प्राप्त करने योग्य मोक्षमार्ग अनायास ही प्राप्त नहीं हो जाता । आत्मज्ञान अथवा मोक्षमार्ग किसीके शापसे अप्राप्त नहीं होते, अथवा किसीके आशीर्वादसे वे प्राप्त नहीं हो जाते । वे पुरुषार्थके अनुसार ही होते हैं, इसलिये पुरुषार्थकी ज़रूरत है।
१५८. सूत्र-सिद्धांत-शास्त्र सत्पुरुषके उपदेशके बिना फल नहीं देते। जो फेरफार है वह व्यव