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७५३ व्याख्यानसार] विविध पत्र मादि संग्रह-३९याँ वर्ष हार मार्गमें ही है । मोक्षमार्ग तो फेरफाररहित है—वह एक ही है । उसे प्राप्त करनेमें शिथिलताका निषेध किया गया है । वहाँ हिम्मत रखनी चाहिये । जीवको मूर्छारहित करना ही जरूरी है।
१५९. विचारवान पुरुषको व्यवहारके फेरफारसे व्याकुल न होना चाहिये ।।
१६०. ऊपरकी भूमिकावाला नीचेकी. भूमिकावालेकी बराबर नहीं है । परन्तु नीचेकी भूमिकावालेसे वह ठीक है। जीव स्वयं जिस व्यवहारमें हो, उससे यदि दूसरेका व्यवहार ऊँचा देखनेमें आवे, तो उस उच्च व्यवहारका निषेध नहीं करना चाहिये । क्योंकि मोक्षमार्गमें कुछ भी फेरफार नहीं है। तीनों कालमें किसी भी क्षेत्रमें जो एक ही समान रहे वही मोक्षमार्ग है।
१६१. अल्पसे अल्प निवृत्ति करनेमें भी जीवको ठंड मालूम होती है, तो फिर वैसी अनंत प्रवृत्तियोंसे जो मिथ्यात्व होता है, उससे निवृत्ति प्राप्त करना यह कितना दुर्धर होना चाहिये ! मिथ्यात्वकी निवृत्ति ही सम्यक्त्व है।
१६२. जीवाजीवकी विचाररूपसे तो प्रतीति की न गई हो, और कथनमात्र ही जीवाजीव है-यह कहना सम्यक्त्व नहीं है । तीर्थकर आदिने भी इसका पूर्वमें आराधन किया है, इससे उन्हें पहिलेसे ही सम्यक्त्व होता है। परन्तु दूसरोंको कुछ अमुक कुलमें, अमुक जातिमें, अमुक वर्गमें अथवा अमुक देशमें अवतार लेनेसे जन्मसे ही वह सम्यक्त्व होता है, यह बात नहीं है। - १६३. विचारके बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञानके बिना सुप्रतीति अर्थात् सम्यक्त्व नहीं होता। सम्यक्त्वके बिना चारित्र नहीं होता; और जबतक चारित्र न हो तबतक जीव केवलज्ञान प्राप्त नहीं करता; और जबतक जीव केवलज्ञान नहीं पाता तबतक मोक्ष नहीं-यह देखनेमें आता है।
*१६४. देवका वर्णन । तत्त्व । जीवका स्वरूप ।
१६५. कर्मरूपसे रहनेवाले परमाणु केवलज्ञानीको दृश्य होते हैं। इसके अतिरिक्त उनके लिये और कोई निश्चित नियम नहीं होता । परमावधिवालेको भी उनका श्य होना संभव है; और मनःपर्यवज्ञानीको उनका अमुक देशसे दृश्य होना संभव है।
१६६. पदार्थोंमें अनंत धर्म-गुण-आदि मौजूद रहते हैं। उनका अनंतवाँ भाग वचनसे कहा जा सकता है और उसका अनंतवाँ भाग सूत्रमें उपनिबद्ध किया जा सकता है। .
१६७. यथाप्रवृत्तिकरण, अनिवृत्तिकरण और अपूर्वकरणके बाद युंजनकरण और गुणकरण होते हैं । युजनकरणका.गुणकरणसे क्षय किया जा सकता है। . . १६८. युजनकरण अर्थात्, प्रकृतिको योजन करना । तथा आत्माका गुण जो ज्ञान है, उससे दर्शन, और दर्शनसे चारित्र होना गुणकरण है। इस गुणकरणसे युंजनकरणका क्षय किया जा सकता है । अमुक अमुक प्रकृति जो आत्मगुणकी निरोधक है उसका गुणकरणसे क्षय किया जा सकता है।
१६९. कर्मप्रकृति, उसके सूक्ष्मसे सूक्ष्म भाव, और उसके बंध,उदय, उदीरणा, संक्रमण, सत्ता, और क्षयभावका जो वर्णन किया गया है, उसका परम सामर्थ्यके बिना वर्णन नहीं किया जा सकता। इनका वर्णन करनेवाला कोई जीवकोटिका पुरुष नहीं, परन्तु ईश्वरकोटिका ही पुरुष होना चाहिये, यह सुप्रतीति होती है।
. . * यह व्याख्यानसार श्रोतासे पुस्तकारुढ नहीं हो सका। -अनुवादक. .
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