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७५३ व्याख्यानसार] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष
७५ है । इस तरह जीव अनंतोंबार ग्रंथी-भेदके पासमें आकर वापिस फिर गया है । कोई जीव ही प्रबल पुरुषार्थ करके निमित्त कारणोंका योग पाकर, पूर्ण शक्ति लगाकर ग्रंथिभेद करके आगे बढ़ता है, और जहाँ वह ग्रंथिभेद करके आगे बढ़ा कि वह चौथेमें आ जाता है; और जहाँ चौथेमें आया कि उस जीवको ऐसी छाप पड़ती है कि अब आगे-पीछे मोक्ष हो ही जायगी।
१४१. इस गुणस्थानकका नाम अविरतसम्यग्दृष्टि है; यहाँ विरतिभावसे रहित सम्यग्ज्ञान दर्शन होता है।
१४२. कहनेमें तो ऐसा आता है कि इस कालमें इस क्षेत्रसे तेरहवाँ गुणस्थानक प्राप्त नहीं होता, परन्तु यह कहनेवाले पहिलेमेंसे भी निकलते नहीं । यदि वे पहिलेमेंसे निकलकर चौथेतक आ और वहाँ पुरुषार्थ करके सातवें अप्रमत्ततक गुणस्थानक पहुँच जाय, तो भी यह एक बड़ीसे बड़ी बात है । सातवेंतक पहुँचे बिना उसके बादकी सुप्रतीति हो सकना मुश्किल है ।
१४३. आत्मामें जो प्रमादरहित जाग्रतदशा है वही सातवाँ गुणस्थानक है । वहाँतक पहुँचजानेसे उसमें सम्यक्त्व समाविष्ट हो जाता है । जीव चौथे गुणस्थानको आकर वहाँसे पाँचवे देशविरत, छठे सर्वविरत और सातवें अप्रमत्तविरतमें पहुँचता है । वहाँ पहुँचनेसे आगेकी दशाका अंशसे अनुभव अथवा उसकी सुप्रतीति होती है। चौथा गुणस्थानकवाला जीव सातवें गुणस्थानकमें पहुँचनेवालेकी दशाका यदि विचार करे तो उसकी किसी अंशसे प्रतीति हो सकती है । परन्तु यदि उसके पहिलेके गुणस्थानकवाला जीव उसका विचार करे तो उसकी किस तरह प्रतीति हो सकती है ! कारण कि जाननेका साधन जो आवरणरहित होना है, वह पहिले गुणस्थानकवालेके पास नहीं होता।
१४४. सम्यक्त्व प्राप्त जीवकी दशाका स्वरूप भिन्न ही होता है । पहिले गुणस्थानवाले दशाकी जो स्थिति अथवा भाव है, उसकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानकके प्राप्त करनेवालीकी दशाकी स्थिति अथवा भाव भिन्न ही देखने में आते हैं; अर्थात् दोनोंमें भिन्न भिन्न दशाका आचरण देखनेमें आता है ।
१४५. पहिलेको शिथिल करे तो चौथेमें आ जाय, यह केवल कथनमात्र है । चौथेमें आनेमें जो वर्तन है, वह विषय विचारणीय है।
१४६. पहिले ४, ५, ६ और ७ गुणस्थानककी जो बात कही गई है, वह कुछ कथनमात्र और श्रवणमात्र ही है, यह बात नहीं; उसे समझकर उसका बारम्बार विचार करना योग्य है ।
१४७. यथाशक्य पुरुषार्थ करके आगे बढ़ना आवश्यक है।
१४८. प्राप्त करनेमें कठिन ऐसा धीरज, संहनन, आयुकी अपूर्णता इत्यादिके अभावसे, कदाचित् सातवें गुणस्थानकके ऊपरका विचार न भी आ सके, परन्तु उसकी सुप्रतीति तो हो सकती है।
१४९. जैसे सिंहको यदि लोहेके किसी ज़बर्दस्त पिंजरेमें बंद कर दिया जाय तो वह सिंह जिस तरह अपनेको भीतर बन्द हुआ समझता है-अपनेको पिंजरेमें बंद समझता है और वह पिंजरेकी भूमिको भी देखता है, केवल लोहेके मजबूत सींकचोंकी बाड़के कारण ही वह बाहर नहीं निकल सकता; उसी तरह सातवें गुणस्थानकके ऊपरके विचारकी सुप्रतीति हो सकती है। .. १५०. यह हो जानेपर भी मतभेद आदिके कारण अठककर जीव आगे नहीं बढ़ सकता ।