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७५३ व्याख्यानसार]
विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष
१२७. गुण और गुणी एक ही हैं । परन्तु किसी कारणसे वे भिन्न भी हैं । सामान्य प्रकारसे तो गुणोंके समुदायको ही गुणी कहते हैं; अर्थात् गुण गुणी एक ही हैं, भिन्न भिन्न वस्तु नहीं। गुणीसे गुण भिन्न नहीं हो सकते । जैसे मिश्रीका टुकड़ा गुणी और उसकी मिठास उसका गुण भिन्न नहीं हो सकते । गुणी मिश्री और गुण मिठास दोनों साथ साथ ही रहते हैं; मिठास उससे कुछ भिन्न नहीं होती । तथापि गुण और गुणी किसी अंशसे भिन्न भी हैं।
१२८. केवलज्ञानीकी आत्मा भी देहव्यापक क्षेत्रमें अवगाहयुक्त है। फिर भी वह लोकालोकके समस्त पदार्थीको भी, जो देहसे दूर हैं, एकदम जान सकती है।
१२९. स्व और परको भिन्न करनेवाला जो ज्ञान है वही ज्ञान कहा जाता है । इस ज्ञानको प्रयोजनभूत कहा गया है । इसके सिवाय बाकीका सब ज्ञान अज्ञान है । जिनभगवान् शुद्ध आत्मदशारूप शांत हैं। उनकी प्रतीतिको जिन-प्रतिबिम्ब सूचन करती है । उस शांत दशाको पानेके लिये जो परिणति, अनुकरण, अथवा मार्ग है उसका नाम जैनमार्ग है । इस मार्गपर चलनेसे जैनत्व प्राप्त होता है।
१३०. यह मार्ग आत्मगुणका रोकनेवाला नहीं; परन्तु उसका बोधक ही है-अर्थात् यह आत्मगुणको प्रगट करता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं। यह बात परोक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष है । प्रतीति करनेकी इच्छा रखनेवालेको पुरुषार्थ करनेसे सुप्रतीति होकर यह प्रत्यक्ष अनुभवका विषय होता है।
१३१. सूत्र और सिद्धांत ये दोनों जुदा हैं । सिद्धान्तोंका रक्षण करनेके लिये उन्हें सूत्ररूपी सन्दूकमें रक्खा गया है। देश-कालका अनुसरण करके सूत्रोंकी रचना की गई है और उनमें सिद्धांत गूंथे गये हैं। वे सिद्धांत किसी भी काल और किसी भी क्षेत्रमें नहीं बदलते, अथवा खंडित नहीं होते; और यदि वे खंडित हो जॉय तो वे सिद्धान्त नहीं हैं।
१३२. सिद्धांत गणितकी तरह प्रत्यक्ष हैं, इसलिये उनमें किसी तरहकी भूल अथवा अधूरापन नहीं रहता । अक्षर यदि कान-मात्रारहित हों तो मनुष्य उन्हें सुधारकर बाँच सकता है, परन्तु यदि अंकोंकी ही भूल हो जाय, तो फिर हिसाब ही गलती हो जाता है; इसलिये अंक कान-मात्रारहित नहीं होते । इस दृष्टान्तको उपदेशमार्ग और सिद्धांतमार्गपर घटाना चाहिये ।
१३३. सिद्धांत, चाहे जिस देशमें, चाहे जिस भाषामें, और चाहे जिस कालमें लिखे गये हों, तो भी वे असिद्धांत नहीं होते । उदाहरणके लिये दो और दो चार ही होते हैं । फिर चाहे वे गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, चीनी, अरबी, परशियन और इंगलिश किसी भी भाषामें क्यों न लिखे गये हो । उन अंकोंको चाहे किसी भी नामसे बोला जाय, तो भी दो और दोका जोड़ चार ही होता है, यह बात प्रत्यक्ष है। जैसे नौको नौसे गुणा करनेसे किसी भी देशमें, किसी भी भाषामें, सफेद दिनमें अथवा अंधेरी रातमें, कभी भी गिनो ८१ ही होते हैं-कभी भी ८० अथवा ८२ नहीं होते; इसी तरह सिद्धांतके विषयमें भी समझना चाहिये ।
१३४. सिद्धांत प्रत्यक्ष हैं-ज्ञानीके अनुभवके विषय हैं; उसमें अनुमान काम नहीं आता। अनुमान तर्कका विषय है, और तर्क आगे बढ़नेपर कितनी ही बार झूठी भी हो जाती है । परन्तु प्रत्यक्ष जो अनुभवगम्य है उसमें कुछ भी भूल नहीं होती।