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श्रीमद् राजचन्द्र
[७५३ व्याख्यानसार
बादर और बाह्य क्रियाका निषेध नहीं किया गया। कारण कि हमारी आत्मामें वह भाव कभी भी स्वममें भी उत्पन्न नहीं हो सकता।
१५. रूढीवाली गाँठ, मिथ्यात्व अथवा कषायका सूचन करनेवाली क्रियाओंके संबंध कदाचित् किसी प्रसंगपर कुछ कहा गया हो, तो वहाँ क्रियाके निषेध करनेके लिये तो कुछ भी नहीं कहा गया है। फिर भी यदि यह कथन किसी दूसरी तरह ही समझमें आया हो तो उसमें समझनेवालेको अपनी खुदकी ही भूल हुई समझनी चाहिये ।
४६. जिसने कषायभावका छेदन कर डाला है, वह ऐसा कभी भी नहीं करता कि जिससे कषायभावका सेवन हो।
४७. जबतक हमारी तरफसे ऐसा नहीं कहा गया हो कि अमुक क्रिया करनी चाहिये, तबतक यह समझना चाहिये कि वह सकारण ही है; और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि क्रिया करनी ही न चाहिये।
४८. हालमें यदि ऐसा कहा जाय कि अमुक क्रिया करनी चाहिये, और पीछेसे देश कालके अनुसार उस क्रियाको दूसरे प्रकारसे करनेके लिये कहा जाय, तो इससे श्रोताके मनमें शंका हो सकती है कि पहिले तो दूसरी तरह कहा जाता था और अब दूसरी तरह कहा जाता है परन्तु ऐसी शंका करनेसे उसका श्रेय होनेके बदले अश्रेय ही होता है।
४९. बारहवें गुणस्थानके अन्त समयतक भी ज्ञानीकी आज्ञानुसार चलना पड़ता है । उसमें स्वच्छंदभाव नाश हो जाता है।
५०. स्वच्छंदसे निवृत्ति करनेसे वृत्तियाँ शान्त नहीं होतीं, उल्टी उन्मत्त ही होती हैं, और उससे च्युत होनेका समय आता है; और ज्यों ज्यों आगे जानेके पश्चात् पतन होता है त्यों त्यों उसे जोरकी पटक लगती है. इससे जीव अधिक गहराईमें जाता है, अर्थात् वह पहिलेमें जाकर पड़ता है। इतना ही नहीं किन्तु उसे जोरकी पटक लगनेके कारण उसे वहाँ बहुत समयतक पड़े रहना पड़ता है ।
५१. यदि अभी भी शंका करना हो तो करो, परन्तु इतना तो निश्चयसे श्रद्धान करना चाहिये कि जीवसे लगाकर मोक्षतकके स्थानक मौजूद हैं, और मोक्षका उपाय भी है। इसमें कुछ भी असत्य नहीं । यह निर्णय करनेके पश्चात् उसमें तो कभी भी शंका न करना चाहिये; और इस प्रकार निर्णय हो जानेके पश्चात् प्रायः शंका नहीं होती । यदि कदाचित् शंका हो भी तो वह एकदेश ही शंका होती है, और उसका समाधान हो सकता है। परन्तु यदि मूलमें ही अर्थात् जीवसे लेकर मोक्षतकके स्थानकोंमें ही अथवा उसके उपायमें ही शंका हो तो वह एकदेश शंका नहीं, परन्तु सर्वदेश शंका है और उस शंकासे प्रायः पतन ही होता है, और वह पतन इतना अधिक जोरसे होता है कि उसकी बहुत जोरकी पटक लगती है।
५२. यह श्रद्धा दो प्रकारकी है:-एक ओघ और दूसरी विचारपूर्वक ।
५३. मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे जो कुछ जाना जा सकता है उसमें अनुमान साथमें रहता है । परन्तु उससे आगे, और अनुमानके बिना ही शुद्धरूपसे जानना यह मनःपर्यवज्ञानका विषय है । अर्थात् मूलमें तो मति श्रुत और मनःपर्यवज्ञान एक हैं, परन्तु मनःपर्यवमें अनुमानके बिना भी मतिकी निर्मलतासे शुद्धरूपसे जाना जा सकता है।