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श्रीमद् राजचन्द्र
[७५३ व्याख्यानसार
निजस्वरूप समझ लेनेके पश्चात्, उससे प्रादुर्भूत ज्ञानसे उसका वही विषय हो जानेके कारण, अथवा उसे अमुक अंशमें समझनेसे उसका उतना ही विषय रहनेके कारण, वृत्ति बलपूर्वक बाहर निकलकर परपदार्थोंमें रमण करनेके लिये दौड़ जाती है। उस समय जाने हुए परद्रव्यको फिरसे सूक्ष्मभावसे समझते हुए वृत्तिको फिरसे अंतरंगमें लाना पड़ता है। और इस तरह उसे अंतरंगमें लानेके पश्चात् उसका विशेषरूपसे स्वरूप समझनेसे, ज्ञानके द्वारा उसका केवल उतना ही विषय हो जानेके कारण, वृत्ति फिरसे बाहर दौड़ने लगती है । उस समय जितना समझा हो उससे भी विशेष सूक्ष्मभावसे फिरसे विचार करते हुए वृत्ति फिरसे अंतरंगमें प्रेरित होती है। इस तरह करते करते वृत्तिको बारम्बार अंतरंगभावमें लाकर शांत की जाती है; और इस तरह वृत्तिको अंतरंगमें लाते लाते कदाचित् आत्माकां अनुभव भी हो जाता है और जब यह अनुभव हो जाता है तो वृत्ति फिर बाहर नहीं जाती; परन्तु आत्मामें ही शुद्ध परिणतिरूप होकर परिणमन करती है। और तदनुसार परिणमन करनेसे बाह्य . पदाढेका दर्शन सहज हो जाता है । इन कारणोंसे परद्रव्यका विवेचन उपयोगी अथवा हेतुभूत होता है।
९२. जीवको अपने आपको जो अल्पज्ञान होता है, उसके द्वारा वह बड़े बड़े ज्ञेय पदार्थोके स्वरूपको जाननेकी इच्छा करता है, सो यह कैसे हो सकता है! अर्थात् नहीं हो सकता। जब जीवको ज्ञेय पदार्थोके स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता, तो वहाँ जीव अपने अल्पज्ञानको उसे न समझ सकनेका कारण न मानता हुआ, अपनेसे बड़े ज्ञेय पदार्थोंमें दोष निकालता है। परन्तु सीधी तरहसे इस अपनी अल्पज्ञताको, उसे न समझ सकनेका कारण नहीं मानता।
... ९३. जीव जब अपने ही स्वरूपको नहीं जान सकता तो फिर वह जो परके स्वरूपको जाननेकी इच्छा करता है, उसे तो वह किस तरह जान (समझ) सकता है ! और जबतक वह समझमें नहीं आता तबतक वह वहीं गुंथा रहकर डोलायमान हुआ करता है। श्रेयकारी निजस्वरूपका ज्ञान जबतक प्रगट नहीं किया, तबतक परद्रव्यका चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लो, फिर भी वह किसी कामका नहीं। इसलिये उत्तम मार्ग तो दूसरी समस्त बातोंको छोड़कर अपनी आत्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना ही है। जो सारभूत है उसे देखने के लिये, 'यह आत्मा सद्भाववाली है, ''वह कर्मकी कर्ता है,' और उससे (कर्मसे ) उसे बंध होता है, वह बंध किस तरह होता है,' 'वह बंध किस तरह निवृत्त हो सकता है, और उस बंधसे निवृत्त हो जाना ही मोक्ष है' इत्यादिके विषयमें बारम्बार और प्रत्येक क्षणमें विचार करना योग्य है; और इस तरह बारम्बार विचार करनेसे विचार वृद्धिंगत होता है, और उसके कारण निजस्वरूपका अंश अंशसे अनुभव होता है। ज्यों ज्यों निजस्वरूपका अनुभव होता है, त्यों त्यों द्रव्यकी अचिन्त्य सामर्थ्य जीवके अनुभवमें आती जाती है। इससे ऊपर बताई हुई शंकाओंके (उदाहरणके लिये थोडेसे आकाशमें अनंत जीवोंका समा जाना अथवा उसमें अनंत पुद्गल परमाणुओंका समाना) करनेका अवकाश नहीं रहता, और उनकी यथार्थता. समझमें आती है । यह होनेपर भी यदि उसे न माना जाता हो, अथवा उसमें शंका करनेका कारण रहता हो, तो ज्ञानी कहते हैं कि वह ऊपर कहे हुए पुरुषार्थ करनेसे अनुभवसे सिद्ध होगा।
९४. जीव जो कर्मबंध करता है, वह देहस्थित आकाशमें रहनेवाले सूक्ष्म पुद्गलोंमेंसे ही ग्रहण करके करता है। कुछ वह बाहरसे लेकर कर्मोको नहीं बाँधता। . .