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७५३ व्याख्यानसार]
विविध पत्र आदि संग्रह.-३१वाँ वर्ष
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९५. आकाशमें चौदह राजू लोकमें पुद्गल-परमाणु सदा भरपूर हैं; उसी तरह शरीरमें रहनेवाले आकाशमें भी सूक्ष्म पुद्गल-परमाणुओंका समूह भरा हुआ है । जीव वहाँसे सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण करके कर्मबंध करता है।
९६. यहाँ ऐसी शंका की जा सकती है कि यदि शरीरसे दूर-बहुत दूर रहनेवाले किसी पदार्थके प्रति जीव राग-द्वेष करे, तो वहाँके पुद्गल ग्रहण करके जो वह बंध करता है, वह किस तरह करता है ! उसका समाधान यह है कि वह राग-द्वेष परिणति तो आत्माकी विभावरूप परिणति है; और उस परिणतिके करनेवाली आत्मा है; और वह शरीरमें रहकर ही उसे करती है। इसलिये शरीरमें रहनेवाली जो आत्मा है, वह जिस क्षेत्रमें है, उस क्षेत्रमें रहनेवाले पुद्गल-परमाणुओंको ही ग्रहण करके वह उनका बंध करती है-वह उन्हें ग्रहण करनेके लिये कहीं बाहर नहीं जाती।
. ९७. यश-अपयशकीर्ति नामकर्म-नामकर्मसंबंध जिस शरीरको लेकर है, वह शरीर जहाँतक रहता है-वहींतक चलता है, वहाँसे आगे नहीं चलता । जीव जब सिद्धावस्थाको प्राप्त हो जाता है अथवा विरतिभावको प्राप्त कर लेता है, उस समय वह संबंध नहीं रहता । सिद्धावस्थामें एक आत्माके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है, और नामकर्म तो एक तरहका कर्म है, तो फिर वहाँ यश-अपयश आदिका संबंध किस तरह घट सकता है ! तथा अविरतिभावसे जो कुछ पापक्रिया होती है, वह पाप तो चालू रहता है।
९८. विरति अर्थात् 'छुड़ाना', अथवा जो रतिसे विरुद्ध है उसे विरति कहते हैं । अविरतिमें तीन शब्द हैं:-अ + वि + रतिः - अ = नहीं + वि = विरुद्ध + रति = प्रीति–मोह; अर्थात् जो प्रीतिसे-मोहसे-विरुद्ध नहीं वह अविरति है । वह अविरति बारह प्रकारकी है।
९९. पाँच इन्द्रिय, छहा मन, तथा पाँच स्थावर जीव, और एक त्रस जीव ये सब मिलकर उसके बारह भेद होते हैं।
१००. सिद्धान्त यह है कि कर्मके बिना जीवको पाप नहीं लगता । उस कर्मकी जबतक विरति नहीं की तबतक अविरतिभावका पाप लगता है-समस्त चौदह राजू लोकमेंसे उसको पापक्रिया चालू रहती है।
१०१. कोई जीव किसी पदार्थका विचार करके मरणको प्राप्त हो जाय, और उस पदार्थका विचार इस प्रकारका हो कि वह विचार किया हुआ पदार्थ जबतक रहे, तबतक उससे पापक्रिया हुआ ही करती हो, तो तबतक उस जीवको अविरतिभावकी पापक्रिया चालू रहती है । यद्यपि जीवने दूसरी पर्याय धारण करनेके पहिलेकी पर्यायके समय, जिस जिस पदार्थका विचार किया है, उसकी उसे खबर नहीं है तो भी, तथा वर्तमानकी पर्यायके समयमें वह जीव उस विचार किये हुए पदार्थकी क्रिया नहीं करता तो भी, जहाँतक उसका मोहभाव विरतिभावको प्राप्त नहीं हुआ तबतक उसकी अव्यक्तरूपसे क्रिया चालू ही रहती है।
१०२. इसलिये वर्तमानकी पर्यायके समयमें उसे उसकी अज्ञानताका लाभ नहीं मिल सकता । उस जीवको समझना चाहिये था कि इस पदार्थसे होनेवाली क्रिया जबतक कायम रहेगी तबतक उसकी