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पत्र ७५० ]
विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष
७५०
मोरबी, माघ सुदी १ बुध. १९५४
(१) सत्श्रुतका परिचय जीवको अवश्य करना चाहिये।
(२) मल विक्षेप और प्रमाद, उसमें बारम्बार अन्तराय उत्पन्न करते हैं। क्योंकि उनका . दीर्घकालसे परिचय है। परन्तु यदि निश्चय करके उनके अपरिचय करनेकी प्रवृत्ति की जाय तो वह होना संभव है। (३) यदि मुख्य अन्तराय हो तो वह जीवका अनिश्चय है।
(२) १. आत्मस्वरूपके निर्णय होनेमें अनादिसे जीवकी भूल होती आ रही है, इस कारण वह भूल अब भी हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं मालूम होता।
२. आत्मज्ञानके सिवाय सर्व केशोंसे और सब दुःखोंसे मुक्त होनेका दूसरा कोई उपाय नहीं है। सद्विचारके बिना आत्मज्ञान नहीं होता, और असत्संगके प्रसंगसे जीवका विचार-बल प्रवृत्ति नहीं करता, इसमें जरा भी संशय नहीं है।
३. आत्म-परिणामकी स्वस्थताको श्रीतीर्थकर समाधि कहते हैं । आत्म-परिणामकी अस्वस्थताको श्रीतीर्थकर असमाधि कहते हैं। आत्म-परिणामकी सहज-स्वरूपसे परिणति होनेको श्रीतीर्थकर धर्म कहते हैं। आत्म-परिणामकी कुछ भी चंचल प्रवृत्ति होनेको श्रीतीर्थकर कर्म कहते हैं।
४. श्रीजिनतीर्थकरने जैसा बंध और मोक्षका निर्णय किया है, वैसा निर्णय वेदांत आदि दर्शनोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता। तथा श्रीजिनमें जैसा यथार्थ-वक्तृत्व देखनेमें आता है, वैसा यथार्थवक्तृत्व किसी अन्य दर्शनमें देखनेमें नहीं आता ।
५. आत्माके अंतर्व्यापारके ( शुभ अशुभ परिणामधाराके ) अनुसार ही बंध-मोक्षकी व्यवस्था है, वह शारीरिक चेष्टाके अनुसार नहीं है। पूर्वमें उपार्जित वेदनीय कर्मके उदयके अनुसार रोग आदि उत्पन्न होते हैं, और तदनुसार ही निर्बल, मंद, म्लान, उष्ण, शीत आदि शरीरकी चेष्टा होती है।
६. विशेष रोगके उदयसे अथवा शारीरिक मंद बलसे ज्ञानीका शरीर कम्पित हो सकता है, निर्बल हो सकता है, म्लान हो सकता है, मंद हो सकता है, रौद्र मालूम हो सकता है, अथवा उसे भ्रम आदिका उदय भी हो सकता है। परन्तु जिस प्रमाणमें जीवमें बोध और वैराग्यकी वासना हुई है, उस प्रमाणमें ही जीव उस प्रसंगमें प्रायः करके उस रोगका वेदन करता है।
७. किसी भी जीवको अविनाशी देहकी प्राप्ति हुई हो—यह कभी देखा नहीं, जाना नहीं और ऐसा संभव भी नहीं; और मृत्युका आगमन तो अवश्य होता ही है-यह अनुभव तो प्रत्यक्ष संदेहरहित है। ऐसा होनेपर भी यह जीव उस बातको फिर फिरसे भूल जाता है, यह आश्चर्य है।
८. जिस सर्वज्ञ वीतरागमें अनंत सिद्धियां प्रगट हुई थी, उस वीतरागने भी इस देहको अनित्य समक्षा है, तो फिर दूसरे जीव तो इस देहको किस तरह नित्य बना सकेंगे!