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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ७४७,७४८,७४९,
रहेगी, अर्थात् जबतक वह व्यावहारिक वृत्ति रहेगी, तबतक यह समझना कि वह आत्महितके लिये बलवान प्रतिबंध है; और स्वनमें भी उस प्रतिबंधमें न रहा जाय, इस बातका लक्ष रखना।
हमने जो यह अनुरोध किया है, उसके ऊपर तुम यथाशक्ति पूर्ण विचार करना और उस वृत्तिके मूलको ही अंतरसे सर्वथा निवृत्त कर देना । अन्यथा समागमका लाभ मिलना असंभव है। यह बात शिथिलवृत्तिसे नहीं परन्तु उत्साहवृत्तिसे मस्तकपर चढ़ानी उचित है।
७४७ आनन्द, पौष वदी १३ गुरु. १९५४ (१) श्रीसोभागकी मौजूदगीमें कुछ पहिलेसे सूचित करना था, और हालमें वैसा नहीं बनाऐसी किसी भी लोकदृष्टिमें जाना उचित नहीं ।
(२) अविषमभावके बिना हमें भी अबंधताके लिये दूसरा कोई अधिकार नहीं है । मौन रहना ही योग्य मार्ग है।
७४८ मोरबी, माघ सुदी ४ बुध. १९५४ शुभेच्छासे लगाकर क्षीणमोहतक सत्श्रुत और सत्समागमका सेवन करना ही योग्य है । सर्वकालमें इस साधनकी जीवको कठिनता है । उसमें फिर यदि इस तरहके कालमें वह कठिनता रहे, तो वह ठीक ही है।
दुःषमकाल और हुंडावसर्पिणी नामका आश्चर्यरूप अनुभवसे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है । आत्मकल्याणके इच्छुक पुरुषको उससे क्षोभ न पाकर, बारम्बार उस योगपर पैर रखकर, सत्श्रुत सत्समागम और सवृत्तिको बलवान बनाना उचित है ।
७४९ मोरबी, माघ सुदी ४ बुध. १९५४ आत्मस्वभावकी निर्मलता होनेके लिये मुमुक्षु जीवको दो साधनोंका अवश्य ही सेवन करना चाहिये:-एक सत्श्रुत और दूसरा सत्समागम ।
प्रत्यक्षसत्पुरुषोंका समागम जीवको कभी कभी ही प्राप्त होता है; परन्तु जीव यदि सदृष्टिवान हो तो वह सत्श्रुतके बहुत समयके सेवनसे होनेवाले लाभको, प्रत्यक्षसत्पुरुषके समागमसे बहुत ही अल्पकालमें प्राप्त कर सकता है। क्योंकि वहाँ प्रत्यक्ष गुणातिशयवान निर्मल चेतनके प्रभावयुक्त वचन और वृत्तिकी सक्रियता रहती है । जीवको जिससे उस समागमका योग मिले, उस तरह विशेष प्रयत्न करना चाहिये।
उस योगके अभावमें सत्श्रुतका अवश्य अवश्य परिचय करना चाहिये । जिसमें शांतरसकी मुख्यता है, शांतरसके हेतुसे जिसका समस्त उपदेश है और जिसमें समस्त रस शांतरसगर्मित हैं ऐसे शाखके परिचयको सल्श्रुतका परिचय कहा है।