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७५३ व्यख्यानसार]
विविध पत्र आदि संग्रह-वाँ वर्ष
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एकसा रहता है । परन्तु ज्ञानावरणीय कर्मकी निरावरणताके अनुसार ज्ञानकी कम ज्यादा विशुद्धता होती है, और उसके प्रमाणमें ही अनुभवका प्रकाश होना कहा जा सकता है।
३. ज्ञानावरणका सब प्रकारसे निरावरण होना केवलज्ञान-मोक्ष-है । वह कुछ बुद्धिबलसे कहनेमें नहीं आता, वह अनुभवके गम्य है।
४. बुद्धिबलसे निश्चय किया हुआ सिद्धांत, उससे विशेष बुद्धिबल अथवा तर्कके द्वारा कदाचित् बदल भी सकता है। परन्तु जो वस्तु अनुभवगम्य ( अनुभवसे सिद्ध ) हो गई है वह तीनों कालमें भी नहीं बदल सकती।
५. वर्तमान समयमें जैनदर्शनमें अविरतिसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थानकसे अप्रमत्त नामके सातवें गुणस्थानकतक आत्मानुभवको स्पष्ट स्वीकार किया है।
. ६. सातवेंसे सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानकतकका समय अंतमुहूर्तका समय है। तेरहवें गुणस्थानकका समय कदाचित् लंबा भी होता है । वहाँतक आत्मानुभव प्रतीतिरूप रहता है।
७. इस कालमें मोक्ष नहीं, ऐसा मानकर जीव मोक्षकी कारणभूत क्रिया नहीं कर सकता; और उस मान्यताके कारण जीवकी प्रवृत्ति अन्यथारूपसे ही होती है।
८. जिस तरह पिंजरेमें बंद किया हुआ सिंह यद्यपि पिंजरेसे प्रत्यक्ष भिन्न होता है, तो भी वह बाहर निकलनेकी सामर्थ्यसे रहित है, उसी तरह अल्प आयुके कारण अथवा संहनन आदि अन्य साधनोंके अभावसे आत्मारूपी सिंह कर्मरूपी पिंजरे से बाहर नहीं आ सकता–यदि ऐसा माना जाय तो यह मानना सकारण है।
९. इस असार संसारमें चार गतियाँ मुख्य हैं; ये कर्म-बंधसे प्राप्त होती हैं । बंधके बिना वे गतियाँ प्राप्त नहीं होती । बंधरहित मोक्षस्थान, बंधसे होनेवाले चतुर्गतिरूप संसारमें नहीं है। यह तो निश्चित है कि सम्यक्त्व अथवा चारित्रसे बंध नहीं होता, तो फिर चाहे किसी भी कालमें सम्यक्त्व अथवा चारित्र प्राप्त करें, वहाँ उस समय बंध नहीं होता; और जहाँ बंध नहीं वहाँ संसार भी नहीं है।
१०. सम्यक्त्व और चारित्रमें आत्माकी शुद्ध परिणति रहती है, किन्तु उसके साथ मन वचन और शरीरका शुभ योग रहता है । उस शुभ योगसे शुभ बंध होता है। उस बंधके कारण देव आदि गतिरूप संसार करना पड़ता है । किन्तु उससे विपरीत भाववाले सम्यक्त्व और चारित्र जितने अंशोंमें प्राप्त होते हैं, उतने ही अंशोंसे मोक्ष प्रगट होती है, उनका फल केवल देव आदि गतिका प्राप्त होना ही नहीं है । तथा जो देव आदि गति प्राप्त हुई हैं वे तो ऊपर कहे हुए मन वचन और शरीरके योगसे ही हुई हैं; और जो बंधरहित सम्यक्त्व और चारित्र प्रगट हुआ है, वह कायम रहकर, उससे फिर मनुष्यभव पाकर—फिर उस भागसे संयुक्त होकर-मोक्ष होती है।
११. चाहे कोई भी काल हो, उसमें कर्म मौजूद रहता है-उसका बंध होता है, और उस बंधकी निर्जरा होती है, और सम्पूर्ण निर्जराका नाम ही मोक्ष है। . १२. निर्जराके दो भेद हैं:-सकामनिर्जरा अर्थात् सहेतु ( मोक्षकी कारणभूत ) निर्जरा, और अकामनिर्जरा अर्थात् विपाकनिर्जरा ।