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३१वाँ वर्ष ७३९
बम्बई, कार्तिक १९५४ शुद्ध चैतन्य अनंत आत्मद्रव्य केवलज्ञान स्वरूप शक्तिरूपसे
वह जिसे सम्पूर्ण प्रगट हो गया है, तथा प्रगट होनेके मार्गको जिन पुरुषोंने प्राप्त किया है, उन पुरुषोंको अत्यंत भक्तिसे नमस्कार है!
७४० बम्बई, कार्तिक वदी १ बुध. १९५४ जो आर्य इस समय अन्य क्षेत्रमें विहार करनेके आश्रममें हैं उनको, जिस क्षेत्रमें शांतरसप्रधान वृत्ति रहे, निवृत्तिमान द्रव्य क्षेत्र काल और भावका लाभ मिले, वैसे क्षेत्रमें विचरना उचित है।
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बम्बई, कार्तिक वदी ५ रवि. १९५४
सर्वथा अंतर्मुख होनेके लिये सत्पुरुषोंका मार्ग सब दुःखोंके क्षय होनेका उपाय है, परन्तु वह किसी किसी जीवकी ही समझमें आता है। महत्पुण्यके योगसे, विशुद्ध बुद्धिसे, तीव्र वैराग्यसे और सत्पुरुषके समागमसे उस उपायको समझना उचित है।
उसके समझनेका अवसर एकमात्र यह मनुष्य देह ही है, और वह भी अनियमित कालके भयसे प्रस्त है और उसमें भी प्रमाद होता है, यह खेद और आश्चर्य है।
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बम्बई, कार्तिक वदी १२, १९५४
आत्मदशाको प्राप्त कर जो निर्द्वन्द्वरूपसे प्रारब्धके अनुसार विचरते हैं, ऐसे महात्माओंका जीवको संयोग मिलना दुर्लभ है।
तथा उस योगके मिलनेपर जीवको उस पुरुषकी परीक्षा नहीं होती, और यथार्थ परीक्षा हुए बिना उस महात्माके प्रति दृढ़ पाश्रय नहीं होता।
तथा जबतक आश्रय छ न हो तबतक उपदेश नहीं लगता, और उपदेशके लगे बिना सम्यग्दर्शनका योग नहीं बनता।