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भीमद् राजवन्द्र
[पत्र ७३५,७३६ . (२) अविषम परिणामसे जिन्होंने कालकूट विषको पी लिया है, ऐसे श्रीऋषभ आदि परम पुरुषोंको नमस्कार हो।
(३) जो परिणाममें तो अमृत ही है, परन्तु प्रारंभिक दशामें जो कालकूट विषकी तरह व्याकुल कर देता है, ऐसे श्रीसंयमको नमस्कार हो। (४) उस ज्ञानको उस दर्शनको और उस चारित्रको बारम्बार नमस्कार हो।
(२) जिनकी भक्ति निष्काम है ऐसे पुरुषोंका सत्संग अथवा दर्शन महान् पुण्यरूप समझना चाहिए।
(१) पारमार्थिक हेतुविशेषसे पत्र आदिका लिखना नहीं हो सकता ।
(२) जो अनित्य है, जो असार है और जो अशरणरूप है, वह इस जीवकी प्रतीतिका कारण क्यों होता है ! इस बातका रात-दिन विचार करना चाहिये।
(३) लोकदृष्टि और ज्ञानीकी दृष्टिको पूर्व और पश्चिम जितना अन्तर है । ज्ञानीकी दृष्टि प्रथम तो निरालंबन ही होती है, वह रुचि उत्पन्न नहीं करती, और जीवकी प्रकृतिको अनुकूल नहीं आती और इस कारण जीव उस दृष्टिमें रुचियुक्त नहीं होता। परन्तु जिन जीवोंने परिवह सहन करके थोड़े समयतक भी उस दृष्टिका आराधन किया है, उन्होंने सर्व दुःखोंके क्षयरूप निर्वाणको प्राप्त किया है उन्होंने उसके उपायको पा लिया है।
जीवकी प्रमादमें अनादिसे रति है, परन्तु उसमें रति करने योग्य तो कुछ दिखाई देता नहीं।
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बम्बई, असोज सुदी ८ रवि. १९५३
(१) सब जीवोंके प्रति हमारी तो क्षमादृष्टि ही है ।
(२) सत्पुरुषका योग तथा सत्समागमका मिलना बहुत कठिन है, इसमें सन्देह नहीं । प्रीष्म ऋतुके तापसे तप्त प्राणीको शीतल वृक्षकी छायाकी तरह, मुमुक्षु जीवको सत्पुरुषका योग तथा सत्समागम उपकारी है । सब शाखोंमें उस योगका मिलना दुर्लभ ही कहा गया है।
(३) शांतसुधारस और योगदृष्टिसमुच्चय ग्रंथोंका हालमें विचार करना ।
७३६
बम्बई, असोज पुदी ८ रवि. १९५३
(१) विशेष उच्च भूमिकाको प्राप्त मुमुक्षुओंको भी सत्पुरुषोंका योग अथवा समागम आधारभूत होता है, इसमें संदेह नहीं। निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका योग बननेसे जीव उत्तरोचर उच्च भूमिकाको प्राप्त करता है। . .