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विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष । जिन उपायोंका प्रदर्शन किया है, वे उपाय सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं; अथवा उन तीनोंका एक नाम ' सम्यक्मोक्ष' है। ___उन वीतरागियोंने अनेक स्थलोंपर सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें सम्यग्दर्शनकी ही मुख्यता कही है । यद्यपि सम्यग्ज्ञानसे ही सम्यग्दर्शनकी पहिचान होती है, तो भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके बिना ज्ञान, संसार-दुःख-का कारणभूत है इसलिये सम्यग्दर्शनकी ही मुख्यता बताई है।
ज्यों ज्यों सम्यग्दर्शन शुद्ध होता जाता है, त्यों त्यों सम्यकूचारित्रके प्रति वीर्य उल्लासित होता जाता है; और क्रमपूर्वक सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होनेका समय आता है । इससे आमामें स्थिर स्वभाव सिद्ध होता जाता है, और क्रमसे पूर्ण स्थिर स्वभाव प्रगट होता है; और आत्मा निजपदमें लीन होकर सर्व कर्म-कलंकसे रहित होनेसे, एक शुद्ध आत्मस्वभावरूप मोक्षमें-परम अव्याबाध सुखके अनुभवसमुद्रमें स्थित हो जाती है।
सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेसे जिस तरह ज्ञान सम्यकस्वभावको प्राप्त करता है-यह सम्यग्दर्शनका परम उपकार है-वैसे ही सम्यग्दर्शन क्रमसे शुद्ध होकर पूर्ण स्थिर स्वभाव सम्यक्चारित्रको प्राप्त होता है, उसके लिये उसे सम्यग्ज्ञानके बलकी सच्ची आवश्यकता है । उस सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय वीतरागश्रुत और उस श्रुततत्त्वका उपदेष्टा महात्मा पुरुष है।
वीतरागश्रुतके परम रहस्यको प्राप्त असंग और परम करुणाशील महात्माका संयोग मिलना अतिशय कठिन है । महान् भाग्योदयके योगसे ही वह योग प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। कहा भी है:
तहा रुवाणं समणाणं
उन श्रमण महात्माओंके प्रवृत्ति-लक्षणोंको परम पुरुषने इस तरह कहा है:
" उन महात्माओंके प्रवृत्ति-लक्षणोंसे अभ्यन्तरदशाके चिह्नोंका निर्णय किया जा सकता है। यद्यपि प्रवृत्ति-लक्षणोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारसे भी अभ्यन्तरदशाविषयक निश्चय होता है; परन्तु किसी शुद्ध वृत्तिमान मुमुक्षुको ही उस अभ्यन्तरदशाकी परीक्षा होती है।
.. ऐसे महात्माओंके समागम और विनयकी क्या आवश्यकता है ! तथा चाहे कैसा भी पुरुष हो, परन्तु जो अच्छी तरह शास्त्र पढ़कर सुनाता हो ऐसे पुरुषसे भी जीव कल्याणके यथार्थ मार्गको क्यों नहीं पा सकता ! इस आशंकाका समाधान किया जाता है: