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पत्र ७१३] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष
६७७ साथ साथ, कुछ सावधानीपूर्वक, परमार्थमें अति उत्साहसहित प्रवृत्ति करके विशुद्धिस्थानका नित्य ही अभ्यास करते रहना चाहिये ।
बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १९५३
७१३ स्वभाव-जाग्रतदशा
चित्रसारी न्यारी परजक न्यारौ सेज न्यारी, चादर भी न्यारी इहाँ झूठी मेरी थपना । अतीत अवस्था सैन निद्रावाहि कोउ पै न, विद्यमान पलक न यामैं अब छपना ॥ स्वास औ सुपन दोऊ निद्राकी अलंग बू, सूझै सब अंग लखि आतम दरपना । त्यागी भयौ चेतन अचेतनता भाव त्यागि, भालै दृष्टि खोलिकै संभाले रूप अपना ॥
(२)
अनुभव-उत्साहवशा जैसौ निरभेदरूप निहचै अतीत हुतो, तैसौ निरभेद अब भेद कौन कहेगौ । दीसै कर्मरहित सहित सुख समाधान, पायौ निजयान फिर बाहरि न बहेगौ ॥ कबहूँ कदाचि अपनौ सुभाव त्यागि करि, राग रस राचिकै नं परवस्तु गहेगी । अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयौ, याही भांति आगम अनंतकाल रहेगी।
स्थितिदशा एक परिनामके न करता दरव दोई, दोइ परिनाम एक दर्व न धरतु है । एक करतूति दोइ दर्व कबहूँ न करै, दोइ करतूति एक दर्व न करतु है ॥ जीव पुदगल एक खेत-अवगाही दोउ, अपनें अपनें रूप दोउ कोउ न टरतु है। जड़ परिनामनिको करता है पुदगल, चिदानन्द चेतन सुभाव आचरतु है ।।
(४)
ॐ सर्वज्ञ
आत्मा सर्व अन्यभावसे रहित है, जिसे सर्वथा इसी तरहका अनुभव रहता है वह मुक्त है। जिसे अन्य सब द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे सर्वथा असंगता रहती है, वह मुक्त है।
अटल अनुभवस्वरूप आत्मा जहाँसे सब द्रव्योंसे प्रत्यक्ष भिन्न भासित हो वहाँसे मुक्तदशा रहती है। वह पुरुष मौन हो जाता है, वह पुरुष अप्रतिबद्ध हो जाता है, वह पुरुष असंग हो जाता है, वह पुरुष निर्विकल्प हो जाता है, और वह पुरुष मुक्त हो जाता है।
जिन्होंने इस तरहकी असंगदशा उत्पन्न की है कि तीनों कालमें देह आदिसे अपना कोई भी संबंध न था, उन भगवानरूप सत्पुरुषोंको नमस्कार है।
तिथि आदिके विकल्पको छोड़कर निज विचारमें आचरण करना ही कर्तव्य है। शुद्ध सहज
बामस्वरूप