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पत्र ७०८]
विविध पत्र मादि संग्रह-३०याँ वर्ष
७०८ ववाणीआ, चैत्र सुदी १५ शनि. १९५३ • १. जो औषध वेदनीयके ऊपर असर करती है, वह औषध वास्तवमें वेदनीयके बंधको ही निवृत्त कर सकती है ऐसा नहीं कहा है । क्योंकि वह औषध यदि कर्मरूप वेदनीयका नाश करनेवाली हो तो फिर अशुभ कर्म ही निष्फल हो जाय, अथवा स्वयं औषध ही शुभ कर्मरूप कही जाय । परन्तु यहाँ यह समझना चाहिये कि वह अशुभ वेदनीयकर्म इस प्रकारका है कि उसका अन्यथाभाव होनेमें औषध आदि निमित्त-कारणरूप हो सकती हैं । मंद अथवा मध्यम और शुभ अथवा अशुभ बंधको किसी सजातीय कर्मके मिलनेसे वह उत्कृष्ट बंध भी हो सकता है । तथा जिस तरह मंद अथवा मध्यम बाँधे हुए कितने ही शुभ बंधका किसी अशुभ कर्मविशेषके पराभवसे अशुभ परिणमन होता है, उसी तरह उस अशुभ बंधका किसी शुभ कर्मके योगसे शुभ परिणमन भी होता है।
२. मुख्यरूपसे तो बंध परिणामके अनुसार ही होता है । उदाहरणके लिये यदि कोई मनुष्य किसी मनुष्यका तीव्र परिणामसे नाश करनेके कारण निकाचित कर्म बाँधे, परन्तु बहुतसे बचावके कारणोंसे
और साक्षी आदिके अभावसे, राजनीतिके नियमोंके अनुसार, उस कर्मको करनेवाला मनुष्य यदि छूट जाय, तो यह नहीं समझना चाहिये कि उसका बंध निकाचित नहीं होता । क्योंकि उसके विपाकके उदयका समय दूर होनेके कारण भी ऐसा हो सकता है। तथा बहुतसे अपराधोंमें राजनीतिक नियमानुसार जो दंड होता है वह भी कर्ताके परिणामके अनुसार ही होता हो, यह एकांतिक बात नहीं है। अथवा वह दंड किसी पूर्वमें उत्पन्न किये हुए अशुभ कर्मके उदयसे भी होता है; और वर्तमान कर्मबंध सत्तामें पड़ा रहता है, जो यथावसर विपाक देता है।
३. सामान्यरूपसे असत्य आदिकी अपेक्षा हिंसाका पाप विशेष होता है । परन्तु विशेषरूपसे तो हिंसाकी अपेक्षा असत्य आदिका पाप एकांतरूपसे कम ही है, यह नहीं समझना चाहिये; अथवा वह अधिक ही है, ऐसा भी एकांतसे न समझना चाहिये । हिंसाके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और उसके कर्ताके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका अवलंबन लेकर ही कर्ताको उसका बंध होता है। इसी तरह असत्य आदिके संबंधमें भी यही समझना चाहिये । किसी अमुक हिंसाकी अपेक्षा किसी अमुक असत्य आदिका फल एकगुना दोगुना अथवा - अनंतगुना विशेषतक होता है। इसी तरह किसी असत्य आदिकी अपेक्षा किसी हिंसाका फल भी एकगुना दोगुना अथवा अनंतगुना विशेषतक होता है।
१. त्यागकी बारम्बार विशेष जिज्ञासा होनेपर भी, संसारके प्रति विशेष उदासीनता होनेपर भी, किसी पूर्वकर्मके प्राबल्यसे जो जीव गृहस्थावासको नहीं छोड़ सकता, वह पुरुष गृहस्थावासमें कुटुम्ब आदिके निर्वाहके लिये जो कुछ प्रवृत्ति करता है, उसमें उसके जैसे जैसे परिणाम रहते हैं, उसे तदनुसार ही बंध आदि होता है। मोहके होनेपर भी अनुकंपा माननेसे, अथवा प्रमाद होनेपर भी उदय माननेसे कर्म-बंध धोखा नहीं खाता । उसका तो परिणामके अनुसार ही बंध होता है। कर्मके सूक्ष्म भेदोंका यदि बुद्धि विचार न कर सके तो भी शुभ और अशुभ कर्म तो फलसाहित ही होता है, इस निश्चयको जीवको भूलना नहीं चाहिये । .... ५. आईतके प्रत्यक्ष परम उपकारी होनेसे तथा उनके सिद्धपदके प्ररूपक होनेके कारण भी सिनकी अपेक्षा. भाईको ही प्रथम नमस्कार किया है।. .....