________________
भीमद् राजचन्द्र
[पत्र ७०७. . ३. त्याग-व्यवहारमें भी ज्ञानीने एकांतसे उपचार आदिका निषेध नहीं किया । निम्रन्थको यदि स्व-परिग्रहीत शरीरमें रोग आदि हो जॉय, तो औषध आदिके ग्रहण करनेके संबंधमें ऐसी आज्ञा है कि जबतक आर्तध्यान उत्पन्न न होने योग्य दृष्टि रहे, तबतक औषध आदि ग्रहण न करनी चाहिये; और यदि औषध ग्रहण करनेका कोई विशेष कारण दिखाई दे तो निरवद्य औषध आदि ग्रहण करनेसे आज्ञाका अतिक्रम नहीं होता, अथवा यथाशुभ औषध आदि ग्रहण करनेसे आज्ञाका अतिक्रम नहीं होता । तथा दूसरे निर्ग्रथको यदि शरीरमें रोग आदि हुआ हो, तो जहाँ उसकी वैयावृत्य आदिके करनेका क्रम प्रदर्शित किया है, वहाँ भी उसे इसी तरह प्रदर्शित किया है कि जिससे कुछ विशेष अनुकंपा आदि दृष्टि रहे । अर्थात् इससे यह बात समझमें आ जायगी कि उसका गृहस्थ-व्यवहारमें एकांतसे त्याग करना असंभव है।
१. वे औषध आदि यदि कुछ भी पाप-क्रियासे उत्पन्न हुई हों, तो जिस तरह वे अपने औषध आदिके गुणको बिना दिखाये नहीं रहतीं, उसी तरह उसमें होनेवाली पाप-क्रिया भी अपने गुणको बिना दिखाये नहीं रहती। अर्थात् जिस तरह औषध आदिके पुद्गलोंमें रोग आदि पुद्गलोंके पराभव करनेका गण मौजद है, उसी तरह उसके लिये की जानेवाली पाप-क्रियामें भी पापरूपसे परिणमन करनेका गुण मौजद है; और उससे कर्म-बंध होकर यथावसर उस पाप-क्रियाका फल उदयमें आता है । उस पाप-क्रियावाली औषध आदिके करनेमें, कराने और अनुमोदन करनेमें, उस ग्रहण करनेवाले जीवकी जैसी देह आदिके प्रति मूर्छा है, जैसी मनकी आकुलता व्याकुलता है, जैसा आर्तध्यान है, तथा उस औषध आदिकी जैसी पाप-क्रिया है, वे सब अपने अपने स्वभावसे परिणमन कर यथावसर फल देते हैं। जैसे रोग आदिका कारणरूप कर्म-बंध, जैसा अपना स्वभाव होता है, उसे वैसा ही प्रदर्शित करता है,
और जैसे औषध आदिके पुद्गल अपने स्वभावको दिखाते हैं, उसी तरह औषध आदिकी उत्पत्ति आदिमें होनेवाली क्रिया, उसके कर्ताकी ज्ञान आदि वृत्ति, तथा उसके ग्रहण करनेवालेके जैसे परिणाम हैं, उसका जैसा ज्ञान आदि है, वृत्ति है, तदनुसार उसे अपने स्वभावका प्रदर्शित करना योग्य ही है। तयारूप शुभ शुभस्वरूपसे और अशुभ अशुभस्वरूपसे फलदायक होता है।
५. गृहस्थ-व्यवहारमें भी अपनी देहमें रोग आदि हो जानेपर जितनी मुख्य आत्मदृष्टि रह सके उतनी रखनी चाहिये, और यदि योग्य दृष्टि से देखनेसे अवश्य ही आर्तध्यानका परिणाम आने योग्य दिखाई दे तो, अथवा आर्तध्यान उत्पन्न होता हुआ दिखाई दे तो, औषध आदि व्यवहारको ग्रहण करते हुए निरवद्य ( निष्पाप ) औषध आदिकी वृत्ति रखनी चाहिये । तथा कचित् अपने आपके लिये अथवा अपने आश्रित अथवा अनुकंपा-योग्य किन्हीं दूसरे जीवोंके लिये यदि सावध औषध आदिका ग्रहण हो तो यह लक्ष रखना उचित है कि उसका सावधपना निर्ध्वस-क्रूर-परिणामके हेतुके समान, अथवा अधर्म मार्गको पोषण करनेवाला न होना चाहिये।
६. सब जीवोंको हितकारी ऐसी ज्ञानी-पुरुषकी वाणीको किसी भी एकांतदृष्टिसे ग्रहण करके उसे अहितकारी अर्थमें न उतारनी चाहिये, इस उपयोगको निरंतर स्मरणमें रखना उचित है। .