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भीमद् राजचन्द्र __
[७०४ (२) हमेशा अमुक शास्त्राध्ययन करनेके पश्चात् इस पत्रके विचार करनेसे स्पष्ट ज्ञान हो सकता है।
(३) कर्मग्रन्थका बाँचन करना चाहिये । उसके पूरे होनेपर उसका फिरसे आवृत्तिपूर्वक अनुप्रेक्षण करना योग्य है।
७०४ ववाणीआ, चैत्र सुदी ४, १९५३
(१) १. एकेन्द्रिय जीवको जो अनुकूल स्पर्श आदिकी अव्यक्तरूपसे प्रियता है, वह मैथुनसंज्ञा है।
२. एकेन्द्रिय जीवको जो देह और देहके निर्वाह आदि साधनोंमें अव्यक्त मूर्छा है, वह परिप्रहसंज्ञा है । वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवोंमें यह संज्ञा कुछ विशेष व्यक्त है ।
(२) (१) तीनों प्रकारके समकितमेंसे चाहे किसी भी प्रकारका समकित आविर्भूत हो, तो भी अधिकसे अधिक पन्दरह भवमें मोक्ष हो जाती है और यदि समकित होनेके पश्चात् जीव उसका वमन कर दे तो उसे अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल-परावर्त्तनतक संसारमें परिभ्रमण होकर मोक्ष हो सकती है।
(२) तीर्थकरके निग्रंथ, निम्रथिनी, श्रावक और श्राविका-इन सबको जीव-अर्जावका ज्ञान था, इसलिये उन्हें समकित कहा हो, यह बात नहीं है। उनमेंसे बहुतसे जीवोंको तो केवल सच्चे अंतरग भावसे तीर्थकरकी और उनके उपदेश दिए हुए मार्गकी प्रतीति थी, इस कारण भी उन्हें समकित कहा है। इस समकितके प्राप्त करनेके पश्चात् जीवने यदि उसे वमन न किया हो तो अधिकसे अधिक उसके पन्दरह भव होते हैं। सिद्धांतमें अनेक स्थलोंपर यथार्थ मोक्षमार्गको प्राप्त सत्पुरुषकी यथार्थ प्रतीतिसे ही समकित कहा है । इस समकितके उत्पन्न हुए बिना, जीवको प्रायः जीव और अजीवका यथार्थ ज्ञान भी नहीं होता । जीव और अजीवके ज्ञान प्राप्त करनेका मुख्य मार्ग यही है।
(३) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान, इन आठोंको जीवके उपयोगस्वरूप होनेसे अरूपी कहा है । ज्ञान और अज्ञान इन दोनोंमें "इतना ही मुख्य अंतर है कि जो ज्ञान समकितसहित है वह ज्ञान है, और जो ज्ञान मिथ्यात्वसहित है, वह अज्ञान है; वस्तुतः दोनों ही ज्ञान हैं ।
(४) ज्ञानावरणीय कर्म और अज्ञान दोनों एक नहीं हैं । ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानको आवरणस्वरूप है, और अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमस्वरूप अर्थात् आवरण दूर होनेरूप है।
(५) अज्ञान शब्दका अर्थ साधारण भाषामें ज्ञानरहित होता है-उदाहरणके लिये जड़ ज्ञानसे रहित कहा जाता है; परन्तु निग्रंथ-भाषामें तो मिथ्यात्वसहित ज्ञानका नाम ही अज्ञान है, अर्थात् उस दृष्टिसे अज्ञानको अरूपी कहा है।
(६) यहाँ शंका हो सकती है कि यदि अज्ञान अरूपी हो तो वह फिर सिद्धमें भी होना चाहिये । उसका समाधान इस प्रकारसे है:-मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही अज्ञान कहा है। उसमेंसे मिथ्यात्व नष्ट हो जानेसे ज्ञान बाकी बच जाता है। वह ज्ञान सम्पूर्ण शुद्धतासहित सिदभगवान्में गता