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श्रीमद् राजचन्द्र
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चाहे जो हो परन्तु इस तरह दोनों बहुत पासमें आ जाते हैं:
विवादके अनेक स्थल तो प्रयोजनशून्य जैसे ही हैं और वे भी परोक्ष हैं ।
अपात्र श्रोताको द्रव्यानुयोग आदि भावके उपदेश करनेसे, नास्तिक आदि भावोंके उत्पन्न होनेका समय आता है, अथवा शुष्कज्ञानी होनेका समय आता है।
अब, इस प्रस्तावनाको यहाँ संक्षिप्त करते हैं; और जिस महात्मा पुरुषने ------- (अपूर्ण)
यदि इस तरह अच्छी तरह प्रतीति हो जाय तो
*हिंसारहिओ धम्मो, अहारस दोसविरहिओ देवो । निगये पवयणे, सदहणे होई सम्मत्तं ॥
तथा
जीवको या तो मोक्षमार्ग है, नहीं तो उन्मार्ग है।
सर्व दुःखका क्षय करनेवाला एक परम सदुपाय, सर्व जीवोंको हितकारी, सर्व दुःखोंके क्षयका एक आत्यंतिक उपाय, परम सदुपायरूप वीतरागदर्शन है। उसकी प्रतीतिसे, उसके अनुकरणसे, उसकी आज्ञाके परम अवलंबनसे, जीव भव-सागरसे पार हो जाता है । समवायांगसूत्रमें कहा है:
आत्मा क्या है ! कर्म क्या है ! उसका कर्ता कौन है ! उसका उपादान कौन है ! निमित्त कौन है ! उसकी स्थिति कितनी है ! कर्ता किसके द्वारा है ! वह किस परिमाणमें कर्म बाँध सकती है ! इत्यादि भावोंका स्वरूप जैसा निम्रय सिद्धांतमें स्पष्ट सूक्ष्म और संकलनापूर्वक कहा है वैसा.. किसी भी दर्शनमें नहीं है। -
(अपूर्ण) * (सारहित धर्म, अठार दोषोंसे रीत देव और निप्रन्य प्रवचनमें प्रदान करना सम्यक्त्व ।-अनुवादक.