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श्रीमद् राजचन्द्र
[७०० पंचास्तिकाय । पदि द्रव्य भिन्न हो और गुण मिन्न हो, तो एक द्रव्यके अनंत द्रव्य हो जॉय, अथवा द्रव्यका ही अभाव हो जाय ॥ १४ ॥
- द्रव्य और गुण अभिन्नरूपसे रहते है-दोनों में प्रदेशभेद नहीं है। उनमें ऐसी एकता है कि द्रव्यके नाशसे गुणका नाश हो जाता है, और गुणके नाशसे द्रव्यका नाश हो जाता है ॥ १५॥ - व्यपदेश (कथन), संस्थान, संख्या और विषय इन चार प्रकारकी विवक्षाओंसे द्रव्य और गुणके अनेक भेद हो सकते हैं, परन्तु परमार्थनयसे तो इन चारोंका अभेद ही है ॥ ४६॥ - जिस तरह किसी पुरुषके पास यदि धन हो तो वह धनवान कहा जाता है, उसी तरह आत्माको ज्ञान होनेसे वह ज्ञानवान कही. जाती है। इस तरह तत्त्वज्ञ पुरुष भेद-अभेदके स्वरूपको दोनों प्रकारों से जानते हैं ॥ १७॥ ... यदि आत्मा और ज्ञानका सर्वथा भेद हो तो फिर दोनों अचेतन ही हो जॉय-यह वीतराग सर्वज्ञका सिद्धान्त है ॥ १८॥ : यदि ऐसा मानें कि ज्ञानका संबंध होनेसे ही आत्मा ज्ञानी होती है, तो फिर आत्मा और अज्ञान (जडत्व ) दोनों एक ही हो जायगे ॥४९॥ . समवृत्तिको समवाय कहते हैं । वह अपृथक्भूत और अयुतसिद्ध है, इसलिये वीतरागियोंने द्रव्य
और गुणके संबंधको अयुतसिद्ध कहा है ॥५०॥ . परमाणुके वर्ण, रस, गंध और स्पर्श ये चार गुण पुद्गलद्रव्यसे अभिन्न हैं । व्यवहारसे ही वे पुद्गल द्रव्यसे भिन्न कहे जाते हैं ॥५१॥
इसी तरह दर्शन और ज्ञान भी जीवसे अभिन्न हैं । व्यवहारसे ही उनका आत्मासे भेद कहा जाता है ॥५२॥
आत्मा ( वस्तुरूपसे ) अनादि-अनंत है, और संतानकी अपेक्षा सादि-सांत है, इसी तरह वह सादि-अनंत भी है । पाँच भावाकी प्रधानतासे ही वे सब भंग होते हैं। सत्तारूपसे तो जीव द्रव्य अनंत हैं ॥ ५३॥
इस तरह सत्का विनाश और असत् जीवका उत्पाद परस्पर विरुद्ध होने पर भी, जिस तरह अविरोधरूपसे सिद्ध होता है, उस तरह सर्वज्ञ वीतरागने कहा है।॥ ५४॥ : नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव ये नामकर्मकी प्रकृतियाँ सत्का विनाश और असत्भावका उत्पाद करती हैं ॥ ५५॥
उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और पारिणामिक भावोंसे जीवके गुणोंका बहुत विस्तार है ॥५६॥ . द्रव्यकर्मका निमित्त पाकर उदय आदि भावोंसे जीव परिणमन करता है, और भावकर्मका निमित्त पाकर द्रव्यकर्म परिणमन करता है; द्रव्यभाव कर्म एक दूसरेके भावके कर्ता नहीं है, तथा वे किसी कर्ताके बिना नहीं होते ॥ ५७ ॥ .. सब अपने अपने स्वभावके कर्चा है उसी तरह आत्मा भी अपने ही भावकी कर्ता है; आत्मा पुद्गलकर्मको कर्चा नहीं है-ये वीतरागके वाक्य समझने चाहिये ॥५८॥:: .