________________
७०० पंचास्तिकाय] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष । ". यदि गमन अथवा स्थानका हेतु आकाश होता, तो अलोककी हानि हो जाती और लोकके अंतकी वृद्धि हो जाती ॥९०॥ ___इस कारण धर्म और अधर्म द्रव्य ही गमन और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं । इस तरह सर्वज्ञ वीतरागने श्रोता जीवोंको लोकके स्वभावका वर्णन किया है ॥९१॥
धर्म, अधर्म और लोकाकाश अपृथक्भूत ( एक क्षेत्रावगाही ) और सदृश परिणामवाले हैं । ये तीनों द्रव्य निश्चयसे पृथक् पृथक् उपलब्ध होते हैं, और अपनी अपनी सत्तासे रहते हैं। इस तरह इनमें एकता और अनेकता दोनों हैं ॥ ९२ ॥ . . आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्त हैं, और पुद्गल द्रव्य मूर्त है । उनमें जीव द्रव्य चेतन है ॥ ९३ ॥
जिस तरह जीव और पुद्गल एक दूसरेको क्रियाके सहायक हैं, उस तरह दूसरे द्रव्य सहायक नहीं हैं। जीव पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे क्रियावान होता है । कालके कारण पुद्गल अनेक स्कंधरूपसे परिणमन करता है ॥ ९४ ॥
. . जीवको जो इन्द्रिय-ग्राह्य विषय है वह पुद्गलद्रव्य मूर्त है, बाकीके सब अमूर्त हैं। मन अपने विचारके निश्चितरूपसे दोनोंको जानता है ।। ९५॥ . काल परिणामसे उत्पन्न होता है। परिणाम कालसे उत्पन्न होता है। दोनोंका ऐसा ही स्वभाव है। निश्चयकालसे क्षणभंगुरकाल होता है ॥९६ ॥ . काल शब्द अपने अस्तित्वका बोधक हैं। उसमें एक नित्य है और दूसरा उत्पाद और व्ययवाला है ॥ ९७॥ . .. काल, आकाश, धर्म, अधर्म और पुद्गल तथा जीव इन सबकी द्रव्य संज्ञा है। कालकी अस्तिकाय संज्ञा नहीं है ॥९८॥
इस प्रकार निग्रंथके प्रवचनके रहस्यभूत इस पंचास्तिकायके स्वरूपके संक्षिप्त विवेचनको यथार्थरूपसे जानकर, जो राग-द्वेषसे मुक्त होता है वह सर्व दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ९९ ॥ . इस परमार्थको जानकर जिसने मोहका नाश कर दिया है, जिसने राग-द्वेषको शांत कर दिया है, वह जीव संसारकी दीर्घ परम्पराका नाश करके शुद्ध आत्मपदमें लीन होता है ॥१०॥ .
इति पंचास्तिकाय प्रथम अध्याय.
ॐ जिनाय नमः-नमः श्रीसदगुरवे. - मोक्षके कारण श्रीभगवान्महावीरको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उस भगवान्के कहे हुए पदार्थोके भेदरूप मोक्षके मार्गको कहता हूँ॥१॥ . . ... दर्शन ज्ञान तथा राग-द्वेषरहित चारित्र, और सम्यक्बुद्धि जिसे प्राप्त हुई है, ऐसे भव्य जीवको मोक्षमार्ग होता है ॥२॥ .. तत्वार्थकी प्रतीति सम्यक्त्व है। उन भावोंका जानना ज्ञान है; और विषय-मार्गके प्रति शांतभाव होना चारित्र है॥३॥