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श्रीमद् राजचन्द्र
[७०० पंचास्तिकाय
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ पदार्थ हैं ॥ ४ ॥
जीव दो प्रकारके होते हैं:-संसारी और असंसारी । दोनोंका लक्षण चैतन्योपयोग है । संसारी जीव देहसहित और असंसारी देहरहित होते हैं ॥ ५ ॥
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये जीवोंसे युक्त हैं । इन जीवोंको मोहकी प्रबलता रहती है, और उन्हें स्पर्शन इन्द्रियके विषयका ज्ञान मौजूद रहता है ॥ ६ ॥
उनमें तीन प्रकारके जीव स्थावर हैं । अल्प योगवाले अग्निकाय और वायुकाय जीव त्रस हैं । उन सबको मनके परिणामसे रहित एकेन्द्रिय जीव समझना चाहिये ॥ ७ ॥
ये पाँचों प्रकारके जीव मन-परिणामसे रहित और एकेन्द्रिय हैं, ऐसा सर्वज्ञने कहा है ॥ ८॥
जिस तरह अण्डेमें पक्षीका गर्भ बढ़ता है, जिस तरह मनुष्यके गर्भमें मूर्छागत अवस्था होनेपर भी जीवत्व मौजूद है, उसी तरह एकेन्द्रिय जीवोंको भी समझना चाहिये ॥ ९॥
शंबूक, शंख, सीप, कृमि इत्यादि जो जीव रस और स्पर्शको जानते हैं, उन्हें दो इन्द्रिय जीव समझना चाहिये ॥ १०॥
नँ, मकड़ी, चींटी, बिच्छू इत्यादि, और अनेक प्रकारके दूसरे भी जो कीड़े रस स्पर्श और गंधको जानते हैं, उन्हें तीन इन्द्रिय जीव समझना चाहिये ॥ ११॥ · · डाँस, मच्छर, मक्खी, भ्रमरी, भ्रमर, पतंग इत्यादि जो रूप, रस, गंध और स्पर्शको जानते हैं, उन्हें चार इन्द्रिय जीव समझना चाहिये ॥ १२॥
देव, मनुष्य, नारक, तिथंच (जलचर, स्थलचर और खेचर ) ये वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्दको जानते हैं । ये बलवान पाँच इन्द्रियोंवाले जीव हैं ॥ १३ ॥
. देवताओंके चार निकाय होते हैं । मनुष्य कर्म और अकर्मभूमिके भेदसे दो प्रकारके हैं । तिर्यच अनेक प्रकारके हैं। नारकी जीवोंकी जितनी पृथिवी-योनियाँ हैं, उतनी ही उनकी जातियाँ हैं ॥१४॥
पूर्वमें बाँधी हुई आयुके क्षीण हो जानेसे जीव गति नामकर्मके कारण आयु और लेश्याके वश होकर दूसरी देहमें जाता है ॥ १५॥ __ इस तरह देहाश्रित जीवोंके स्वरूपके विचारका निर्णय किया। उनके भव्य और अभव्यके भेदसे दो भेद हैं । देहरहित सिद्धभगवान् हैं ॥ १६ ॥
जो सब कुछ जानता है, देखता है, दुःखका नाश करके सुखकी इच्छा करता है, शुभ और अशुभ कर्म करता है और उसके फलको भोगता है, वह जीव है ॥ १७॥
आकाश, काल, पुद्गल और धर्म अधर्म द्रव्यमें जीवत्व गुण नहीं है, उन्हें अचेतन कहते हैं; और जीवको सचेतन कहते हैं ॥ १८ ॥
. सुख-दुःखका वेदन, हितमें प्रवृत्ति, अहितमें भीति, ये तीनों कालमें जिसे नहीं हैं, उसे सर्वज्ञ महामुनि अजीव कहते हैं ॥ १९ ॥
संस्थान, संघात, वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्द इस तरह पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न होनेवाली अनेक गुण-पर्याय हैं ॥२०॥